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प्रतिवर्ष बदलते पर्यावरण के साथ मौसमी घटनाओं में भी परिवर्तन आ रहे हैं। कहीं जरूरत से ज्यादा बारिश होने के कारण बाढ़ आ रही है, तो कहीं लोग पीने के पानी के लिए भी तरस रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण ओलावृष्टि का प्रभाव भी बढ़ता जा रहा है। इसी वर्ष भारी ओलावृष्टि से हरियाणा के कुरूक्षेत्र में लगभग 2,534 एकड़ में फसल की क्षति हुई, जिसमें मुख्यत: गेहूं, सरसों, आलू, टमाटर आदि शामिल थे।
हालांकि सरकार इसकी भरपाई के लिए मुआवजा दे रही है किंतु शायद यह पर्याप्त नहीं। पिछले वर्ष (2019) में हुई ओलावृष्टि ने भी फसलों को भारी नुकसान पहुंचाया था। इस ओलावृष्टि से रबी की खड़ी फसलें जैसे गेहूं, मक्का, मटर आदि सब नष्ट हो गयी थी। मुजफ्फरनगर में आलू की खेती पर इसका विशेष प्रभाव देखा गया। इसने आलू के उत्पादन के साथ-साथ इसकी गुणवत्ता को भी घटाया। इस ओलावृष्टि का प्रभाव संपूर्ण उत्तर भारत में देखा गया।
अब तक की सबसे भयानक ओलावृष्टि 1888 में मुरादाबाद में हुई थी, जिसमें लगभग 246 लोग और 1600 मवेशी मारे गए थे। 30 अप्रैल 1888 को हुई यह घटना आज भी इतिहास के पन्नों में अंकित है, कहा जाता है कि इस ओलावृष्टि में गेंद या संतरे के बराबर ओले बरसे थे तथा 2 फिट की ऊंचाई तक ओले जमा हो गए थे। इसे संयुक्त राष्ट्र के मौसम विभाग के द्वारा सबसे घातक मौसमी घटनाओं में गिना गया था। इस घटना के बाद विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने पहली बार उसके द्वारा निर्धारित की गयी मौसम और जलवायु की चरम सीमा के तापमान और मौसम के दायरों में परिवर्तन किया गया, जिससे भावी मौसमी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सके।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन के द्वारा पांच मौसमी घटनाओं को सूचीबद्ध किया गया, जिसमें गर्मी या शीत लहरें, सूखा और बाढ़ शामिल नहीं थे। 1970 के उष्णकटिबंधीय चक्रवात से पूर्वी पाकिस्तान में लगभग 300,000 लोगों की मृत्यु हुई, जो अब तक की मौसमी घटना से जुड़ी सबसे उच्च मृत्यु दर थी। 1989 में बांग्लादेश में आए बवंडर में 1,300 लोगों की जान गयी, इस प्रकार की अनेक मौसमी घटनाएं हुई जिसमें अनिगिनत जान-माल की हानि हुई। इस प्रकार की घटनाओं का अध्ययन करके विश्व मौसम विभाग सहित विभिन्न देशों के मौसम विभागों ने मौसमी परिवर्तनों का पूर्वानूमान लगाने वाली अपनी पद्धतियों में सुधार किया, जिससे संबंधित पूर्वानुमान और चेतावनी के बुनियादी ढांचे में निरंतर सुधार से मृत्यु दर में कमी आने की संभावना जताई गयी। इसके लिए वे पूर्व में घटी मौसमी घटनाओं का निरंतर अध्ययन कर रहे हैं ताकि भावी जोखिमों को कम किया जा सके। आज तकनीकी विकास के साथ इसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं।
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