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प्रत्येक वर्ष 2 अक्टूबर को पूरे देश में गांधी जयंती मनायी जाती है। गांधी जी एक ऐसा व्यक्तित्व हैं, जिनसे शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो प्रभावित न हुआ हो। जहां हम राष्ट्र के प्रति उनका अत्यधिक प्रेम देखते हैं, वहीं राष्ट्रहित के लिए हिंदी भाषा को प्रसारित करने के उनके महत्वपूर्ण प्रयास को भी देखते हैं। यही कारण है कि गांधीजी ने भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में ‘हिंदी’ की सिफारिश की। इस सिफारिश के पीछे बहुत ही गहरा निहितार्थ है। अक्सर लोग सोचते हैं कि, जब गांधीजी ने भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में ‘हिंदी’ की सिफारिश की थी, तब उनका क्या मतलब था? गांधी जी अच्छी तरह से उर्दू पढ़ना और लिखना जानते थे, लेकिन क्या वे भारतीय स्वतंत्रता के बाद, उर्दू का उपयोग नहीं करना चाहते थे? इन सभी सवालों के जवाब के लिए इस बात के गहरे निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है, कि 1947 में स्वतंत्रता से पहले, भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा ‘हिंदुस्तानी’ थी। इसमें देवनागरी लिपि या उर्दू लिपि में लिखे जाने का विकल्प था। बेशक अधिकांश लोग जो ‘हिंदुस्तानी’ भाषा बोलते थे, वे अनपढ़ थे (न ही देवनागरी या उर्दू शब्द लिखना जानते थे)। तो आइए हम आज यह समझने की कोशिश करते हैं कि, इस विषय पर गांधी जी के अपने विचार क्या थे?
इस विषय पर गांधी जी के विचार 1947 से पहले कराची से उनके द्वारा छपी किताबों में स्पष्ट रूप से व्यक्त हैं, लेकिन वे अब मुद्रण से बाहर हैं। गांधी जी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे। अधिकांश भाषाएं संस्कृत से व्युत्पन्न हुई हैं, और इसी तरह हिंदी भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न हुई है। गांधी जी का कहना था कि ‘यह अनुमान लगाया गया है कि हिंदी-हिंदुस्तानी बोलने और समझने वाले हिंदुओं और मुसलमानों की संख्या दो सौ करोड़ से अधिक है, तो क्या कर्नाटक के 110 लाख पुरुष और महिलाएं (उदाहरण के लिए) ऐसी भाषा सीखना पसंद नहीं करेंगे, जो कि उनके खुद के लगभग 20 करोड़ बहनों और भाईयों द्वारा बोली जाती है?' गांधी जी ने हिंदी, हिंदुस्तानी या उर्दू में कभी अंतर नहीं किया। इन भाषाओं का व्याकरण समान है, लेकिन यह लिपि है, जिसके कारण ये एक दूसरे से अलग हैं। फिर भी वे केवल एक भाषा को दर्शाते हैं। यद्यपि गांधी जी ने प्रांतीय भाषाओं का सम्मान किया और उनकी सराहना की, लेकिन उन्होंने उन भाषाओं को मुख्य रूप से राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया क्योंकि हिंदी एक ऐसी भाषा है, जो सीखने वाले तक आसानी से पहुंच सकती है तथा सीखने में सहज भी है। उनका मानना था कि हिंदी भाषा, ने राष्ट्रीय भाषा की सभी पाँच आवश्यकताओं को पूरा किया है। उन्होंने हिंदी को उस भाषा के रूप में परिभाषित किया, जो उत्तर में हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा देवनागरी या उर्दू लिपि में बोली जाती है। हिंदुओं द्वारा इसे संस्कृतकृत बनाने या मुसलमानों द्वारा इसे फ़ारसीकृत बनाने के बावजूद, उन्होंने इसे संचार के लिए एक सुपाठ्य भाषा के रूप में अपनाने में कोई कठिनाई नहीं पाई। उन्होंने दक्षिण के लोगों से अपनी देशभक्ति की भावना के साथ अंतरात्मा में हिंदी सीखने के लिए विशेष प्रयास करने की अपील की। जिस तरह उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अंतर को खारिज कर दिया, इसी प्रकार उन्होंने हिंदी और उर्दू के बीच अंतर करने से इनकार कर दिया। उन्होंने लोगों को भाषा के संस्कृत या फारसी सम्मिश्रण को अस्वीकार न करने की सलाह दी और गंगा और यमुना के सुंदर संगम की तरह ‘दोनों का सामंजस्यपूर्ण मिश्रण स्थापित किया। उन्होंने हिंदी-उर्दू बहस के विवाद को खारिज कर दिया और लोगों को सलाह दी कि वे लिपि के मुद्दे पर न लडें। उनका मानना था कि संस्कृत और फारसी शब्दों का सामंजस्यपूर्ण आदान-प्रदान न केवल भाषा को समृद्ध और मजबूत बनाएगा बल्कि हिंदू और मुसलमानों को भी करीब लाएगा।
उनका विश्वास था कि ‘हिंदी’ वह शब्द है, जिसे उर्दू के अस्तित्व में आने से पहले ही हिंदू और मुसलमान दोनों द्वारा बोला गया। शब्द हिंदुस्तानी भी उसी भाषा को उल्लेखित करने या दर्शाने के लिए, इसी के बाद उपयोग में आया। उनके अनुसार सभी मुसलमानों और हिंदुओं को हिंदी बोलने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इसे उत्तर भारत में अत्यधिक लोगों द्वारा बोला जाता है। गांधी जी के अनुसार जब अंततः हमारे दिल एक हो जाएंगे, और हमें प्रांत के बजाय अपने देश के रूप में भारत पर गर्व होगा, जब हम सभी धर्मों जिनका मूल एक ही है, को समझना और उनका सम्मान करना सीख जायेंगे, जब हम एक ही पेड़ के विभिन्न फलों को जानने और पसंद करने लगेंगे, तब हम सार्वभौमिक लिपि के साथ एक सार्वभौमिक भाषा को प्राप्त कर लेंगे जबकि इसके साथ प्रांतीय उपयोग के लिए हमारी प्रांतीय भाषाएं भी रहेंगी। हिंदी के किसी एक रूप या केवल एक लिपि को किसी प्रांत या जिले में संचालित करने का प्रयास देश के सर्वोत्तम हितों के लिए हानिकारक है। वे कहते थे कि सामान्य भाषा के प्रश्न को धार्मिक मतभेदों से अलग करके देखा जाना चाहिए तथा रोमन (Roman) लिपि भारत की सामान्य लिपि नहीं हो सकती और न ही होनी चाहिए।
गांधी जी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित करने के लिए अनेकों उपाय सुझाए। जैसे जो लोग हिंदी सीखना चाहते हैं उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक आसान किताब होनी चाहिए। एक हिंदुस्तानी व्याकरण और विभिन्न प्रांतों के उपयोग के लिए ऐसी अन्य संदर्भ पुस्तकें तैयार करने के लिए एक मानक हिंदुस्तानी शब्दकोश होना चाहिए। स्कूलों में उपयोग के लिए हिंदुस्तानी में पाठ्य-पुस्तकें होनी चाहिए। सरल हिंदुस्तानी में किताबें होनी चाहिए। इन पुस्तकों को विद्वानों और अनुभवी लेखकों द्वारा लिखा जाना चाहिए, आदि। गांधी जी को लगा कि हिंदी या हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देना राष्ट्रीय आवश्यकता है। उन्होंने द्रविड़ भाषा बोलने वाले लोगों से पर्याप्त हिंदुस्तानी सीखने की अपील की ताकि वे कांग्रेस की कार्यवाही का अनुसरण कर सकें और हिंदी सीखने में भी समय दें। गांधी जी को दृढ़ विश्वास था कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए एक-एक लिपि होनी चाहिए और इसके लिए उन्होंने देवनागरी को सबसे योग्य माना। वह 'हिंदू-मुस्लिम पागलपन' के बारे में भी जानते थे, जिसने इस संभावित सुधार में एक बड़ी बाधा के रूप में काम किया। सकारात्मक पक्ष पर, उन्होंने एक कदम के रूप में एक लिपि की एकता की कल्पना की, जो देश को ठोस बनाने और प्रांतों को निकट संपर्क में लाने में मदद करेगी। उनके अनुसार चूंकि देवनागरी लिपि एक आसान अनुकूलनशीलता की आवश्यकताओं को पूरा करती है, इसलिए यह एक भाषा के प्रसार की सुविधा प्रदान करेगी। सभी स्कूलों में एक लिपि का अनिवार्य सीखना इसे बढ़ावा देने के उद्देश्य से कार्य करता है। उनके अनुसार जब हिंदू और मुस्लिम वास्तविक एकता की ओर अग्रसर होंगे, तब इससे आपसी भाईचारा, स्नेह, शिष्टाचार और एक-दूसरे की भाषा सीखने की सभी गतिविधियां होंगी। देवनागरी, जैसा कि उनका मानना था, ‘लाखों हिंदुओं और यहां तक कि मुसलमानों के लिए सीखना आसान है क्योंकि प्रांतीय लिपियां ज्यादातर देवनागरी से ली गई हैं’। जहां हिंदुओं को अपने धर्मग्रंथों को पढ़ने के लिए देवनागरी सीखना पड़ता है, वहीं मुसलमान हिंदी-हिंदुस्तानी के ज्ञान के अलावा पवित्र कुरान सीखने के उद्देश्य से अरबी सीखते हैं। इसलिए देवनागरी लिपि को सार्वभौमिक बनाने के लिए आंदोलन का एक ठोस आधार है। एक चित्र में हम देख सकते हैं कि कैसे गांधी जी ने एक पत्र पर 3 लिपियों-अंग्रेजी, देवनागरी और उर्दू -का उपयोग किया है, जो यह दर्शाता है कि भले ही अनेक कारणों से गांधी जी हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में थे लेकिन उनके लिए सभी भाषाएं समान महत्व रखती थीं।
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