कैमरे के आविष्कार के बाद 1858 में एक फ्रांसीसी फोटोग्राफर फेलिस बिआटो (Felice Beato) ने कुछ शुरुआती फोटोग्राफी (Photography) लखनऊ में की थी। ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) ने उन्हें 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम संबंधी फोटोग्राफी के लिए भुगतान किया था। बिआटो ने अवध के नवाब के परिवार की दुर्लभ तस्वीरें खींची थी। उसी दौरान उसने 1858 में सुलेमान कादर का फोटो खींचा, जो नवाब वाजिद अली शाह के परिवार के थे, जिनमें बेगम हजरत महल, उनका बेटा बिजरिस कद्र आदि मौजूद हैं।
सुलेमान कादर
यह अवध के चौथे बादशाह अमजद अली शाह के शहजादे थे। अमजद अली शाह, वाजिद अली शाह के दूसरे भाई थे। वाजिद अली शाह अवध के आखिरी बादशाह थे।
बेगम हजरत महल( 1820- 7 अप्रैल 1879)
बेगम हजरत महल का वास्तविक नाम 'मोहम्मदी' था और उनका जन्म अवध के फैजाबाद शहर में हुआ था। पेशे से वे तवायफ थी और शाही हरम में अपने माता-पिता द्वारा बेचे जाने पर एक नौकरानी के तौर पर शामिल हुई। वहां फिर से ही दलालों को बेचे जाने के बाद, उन्हें 'परी' के तौर पर चर्चित किया गया। उन्हें 'महक परी' कहा जाता था। बाद में अवध के नवाब द्वारा शाही रखैल के रूप में स्वीकार किए जाने पर वे बेगम बन गई। उनके बेटे बिजरिस कद्र के जन्म के बाद, उन्हें 'हजरत महल' का नाम दिया गया।
हजरत महल, वाजिद अली शाह की छोटी पत्नी थी। ब्रिटिश द्वारा 1856 में अवध पर कब्जा करने के बाद वाजिद अली शाह को कोलकाता निर्वासित कर दिया गया। उनके बाद बेगम हजरत महल ने अवध के मामलों का अधिभार ग्रहण किया, जो कि उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा हिस्सा था।1857- 1858 के भारतीय स्वतंत्रता के पहले संग्राम के दौरान बेगम हजरत महल के सहयोगियों में प्रमुख राजा जयलाल सिंह ने अंग्रेजों का डटकर सामना किया और लखनऊ की नाकेबंदी करके बिजरिस कद्र को अवध का शासक घोषित किया।
बेगम हजरत महल की सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सड़कें चौड़ी करने के नाम पर मंदिर-मस्जिद तोड़ दिए। विद्रोह के अंतिम चरण में एक घोषणा के जरिए बेगम ने ब्रिटिश दावे का मजाक उड़ाया, जिसमें धार्मिक आजादी की बात की गई थी, उनके अनुसार 'सूअर खाना, शराब पीना, चर्बी लगे कारतूस चबाना, मिठाइयों में सूअर की चर्बी मिलाना, हिंदू-मुस्लिम पूजा स्थलों की सड़क निर्माण के नाम पर या चर्च निर्माण के नाम पर तोड़ा जाना, गलियों में क्रिश्चियन धर्म का प्रचार करना, अंग्रेजी स्कूलों का निर्माण, अंग्रेजी सीखने के लिए लोगों को वजीफे देना, जबकि हिंदू-मुस्लिम पूजा स्थल पूरी तरह उपेक्षित करना, आदि से यह कैसे यकीन किया जा सकता है कि धर्म पर इनका प्रभाव नहीं पड़ेगा।'
जब सैनिकों ने ब्रिटिश शासकों के आदेश से लखनऊ और अधिकांश अवध पर फिर से कब्ज़ा पा लिया, बेगम हजरत महल को समर्पण के लिए मजबूर होना पड़ा। हजरत महल नाना साहब के साथ मिलकर काम कर रही थी, लेकिन बाद में शाहजहांपुर पर आक्रमण के समय फैजाबाद के मौलवी के साथ हो गई। अंत में उन्हें पीछे हटकर नेपाल भागना पड़ा। वहां उन्हें शरण देने से नेपाल के प्रधानमंत्री जंग बहादुर ने इंकार कर दिया। लेकिन बाद में उन्हें वहां रुकने की अनुमति मिल गई। 1879 मैं बेगम हजरत महल की नेपाल में मौत हो गई। उन्हें बेनाम कब्र में काठमांडू की जामा मस्जिद क्षेत्र में दफन कर दिया गया। 1887 में महारानी विक्टोरिया (Queen Victoria) की स्वर्ण जयंती के अवसर पर ब्रिटिश सरकार ने बिजरिस कद्र को माफ कर दिया और घर वापसी की अनुमति दे दी। 14 अगस्त 1893 में उनका आराबाग महल में निधन हो गया। उनके पोते कौकब कद्र के अनुसार बिजरिस की पत्नी मेहताब आरा बेगम अकेली चश्मदीद गवाह थी कि किस तरह बिजरिस कद्र की मुख्य पत्नियों और भाइयों ने रात के खाने में जहर मिलाकर बिजरिस कद्र, उनके बेटे और करीबियों को मौत की नींद सुला दिया। आरा बेगम ने गर्भवती होने के कारण रात का खाना नहीं खाया था।
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