नवाब वाजिद अली शाह के शासन में लखनऊ के ठुमरी घराना ने ठुमरी के विकास में प्रमुख भूमिका निभाई। लेकिन खुद ठुमरी का जन्म ख्याल गायकी से हुआ था और ख्याल का जन्म शास्त्रीय संगीत के सभी रूपों के मूल जनक ध्रुपद से हुआ। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, हवेली संगीत और दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत जैसे प्रमुख संगीत प्रकारों की प्राचीनतम गायन शैली ध्रुपद है। संस्कृत के ध्रुव ( अटल,स्थाई) और पद ( गीत) शब्दों से इसका निर्माण हुआ है। ध्रुपद की जड़े प्राचीन है और इसका जिक्र हिंदू संस्कृत नाट्यशास्त्र (200 BC- 200 CE) में हुआ था।
ध्रुपद की उत्पत्ति और विकास
यह आध्यात्मिक, वीर रस का, विचार पूर्ण, धार्मिक प्रवृत्ति का काव्य और संगीत का मिश्रण होता है। इसमें 4 पद होते हैं- स्थाई, अन्तरा, संचारी और अभोग्य । कभी-कभी पांचवा पद 'भोग्य' भी शामिल किया जाता है। ज्यादातर ध्रुपद धार्मिक दार्शनिक प्रकार के होते हैं। कुछ ध्रुपद राजाओं की प्रशंसा में भी रचे गए। इसका जन्म 14वीं शताब्दी में ब्रज के संत स्वामी हरिदास,सूरदास, गोविंद स्वामी, अष्टसखा और बाद में तानसेन और बैजू बावरा द्वारा हुआ। 1593 में लिखी आईना-ए-अकबरी में अबू फजल ने पहली बार इसका उल्लेख किया। बाद में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ( 1486- 1516) के दरबार में इसका बहुत विकास हुआ। अधिकांश इतिहासकार ध्रुपद के जन्म का श्रेय राजा मानसिंह तोमर को देते हैं। कवि- गायक- संत स्वामी हरिदास ध्रुपद शैली के स्थापित गायक थे। उनके पद कृष्ण को समर्पित हैं। उनके शिष्य तानसेन ने भी ध्रुपद का काफी प्रयोग किया। ध्रुपद गायन की संगीत में पखावज या मृदंग का प्रयोग तबले की जगह होता है। ध्रुपद के शुरू में लंबा आलाप होता है। इसके बाद जोर, झाला या नोमतोम गाया जाता है। फिर बंदिश, ताल वाद्य और अन्य वाद्यों के साथ गाई जाती है। तिवरा,सुल और चैताल का प्रयोग होता है। बाद में इसमें होली शामिल की जाती है। अधिकतर ध्रुपद गायन मंदिरों में होता है।
ध्रुपद के प्रकार
शास्त्रीय ध्रुपद के चार प्रकार होते हैं- गौरी(गौहर), खंदार, नौहार और डागर । इससे जुड़ा प्रमुख घराना है- डागर घराना। यह मुस्लिम घराना होने के बावजूद हिंदू देवी देवताओं की रचनाएं गाते हैं । बिहार से दरभंगा, दुमराँ और बेतिया घराने हैं।
ध्रुपद का शिक्षण
ध्रुपद का शिक्षण गुरु शिष्य परंपरा में होता है। यह हजारों साल पुरानी परंपरा है। शिष्य गुरु के साथ रहकर अपने को पूर्ण रूप से रियाज़ के लिए समर्पित कर देते थे । ऐतिहासिक सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव ने ध्रुपद को पूरी तरह से शास्त्रीय रूप दे दिया। 12-16वीं शताब्दी के मध्य इसकी भाषा संस्कृत से ब्रजभाषा और अवधी में परिवर्तित हो गई। पंडित विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा एकत्र की गई सैकड़ों ध्रुपद धमार बंदिशें हमारी समृद्ध परंपरा की धरोहर हैं।
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.