सत्ता में व्यक्तियों की सनक अक्सर अजीब परिणाम दे देती है, जो कभी-कभार लाभकारी और अक्सर, नुकसान वाले होते हैं। अंग्रेजों और अवध के शासकों को भी ऐसे परिणामों का सामना करना पड़ा था। इसका एक प्रमुख उदाहरण लखनऊ की शास्त्रीय शैली में बनी अद्भुत तारे वाली कोठी में देखने को मिलता है, इस बंगले का नाम तारे वाली कोठी इसलिए रखा गया क्योंकि नवाब नासिर-उद-दीन हैदर द्वारा इसका निर्माण एक वेधशाला बनाने के उद्देश्य से ही किया गया था।
1831 में नवाब नसीर-उद-दीन हैदर ने शाही वेधशाला की स्थापना का प्रस्ताव यह उल्लेख करते हुए रखा था कि यह न केवल अंतरिक्ष संबंधी अवलोकन में मदद करेगी बल्कि इससे युवा दरबारियों को एक स्कूल के रूप में खगोल विज्ञान और सामान्य भौतिकी के कुछ ज्ञान को भी पढ़ाया जा सकेगा। नवाब की ये भावनाएं वेधशाला के निर्माण के लिए खगोलविद और अधीक्षक के रूप में नियुक्त किए गए कैप्टन जेम्स हर्बर्ट (James Herbert) की डायरी (Diary) में भी दर्ज हैं। वहीं राजा बख्तावर सिंह को 1832 में शुरू हुए निर्माण कार्य का पर्यवेक्षक बनाया गया था।
फरवरी 1835 में, राजा नसीर-उद-दीन हैदर ने वेधशाला की प्रगति से असंतुष्टि दिखाई और एक नए खगोलविद को भेजने के लिए गवर्नर जनरल से अनुरोध किया। जिसके बाद लेफ्टिनेंट कर्नल आर. विलकोक्स ((Lieutenant Colonel R Wilcox)) द्वारा कैप्टन हर्बर्ट का स्थान लिया गया था। जुलाई 1837 में नवाब की मृत्यु हो गई थी और तब तक वेधशाला का निर्माण भी पूरा नहीं हुआ था। वहीं उनके बाद अंग्रेजों ने नए राजा के रूप में उनके चाचा, मोहम्मद एएम को नियुक्त किया। परंतु उन्होंने इस परियोजना के खर्च को उठाने में असमर्थता दिखाते हुए इसके कार्य को वहीं रोक दिया। हालाँकि, इस परियोजना को उनके शासनकाल में ही 1841 के अंत में पूरा किया गया था और भवन और वेधशाला को स्थापित करने में लगभग 19 लाख से अधिक खर्च हुए थे।
इस दो मंजिला इमारत का निर्माण जमीन से थोड़ा उठाकर किया गया था, जिसके केंद्र में दो विशाल कक्ष थे। साथ ही अवलोकन के लिए इसमें एक छोटा गोलाकार कमरा शीर्ष पर बनाया गया, जिसमें एक धातु का गोलार्ध गुंबद भी प्रदान किया गया था। इस गुंबद को पहिया और चरखी प्रणाली की मदद से किसी भी वांछित स्थिति में घुमाया जा सकता था। साथ ही गुंबद के पास गतिशील किवाड़ भी थे, जिन्हें तारों और ग्रहों के अवलोकन के लिए, खोलने या बंद करने के लिए उपयोग किया जा सकता था।
इस वेधशाला को इंग्लैंड (England) के ग्रीनविच (Greenwich) वेधशाला के स्वरूप पर डिज़ाइन किया गया था और वहीं के समान उपकरण भी रखवाए गए थे। जिनमें चार टेलिस्कोप के अलावा बैरोमीटर (Barometers), मैग्नेटोमीटर (Magnetometers), लॉस्टस्टोन (Lodestones), थर्मामीटर (Thermometers) और स्टैटिक इलेक्ट्रिसिटी गैल्वनिक डिवाइस (Static Electricity Galvanic Devices) थे। मुख्य टेलीस्कोप को 20 मीटर ऊंचे स्तंभ पर रखा गया था। खगोलविद जनरल के रूप में विल्कोक्स के अलावा, कालीचरण और गंगाप्रसाद के नाम उनके सहायक के रूप में अभिलेख में दिखाई देते हैं। लेकिन 20 जनवरी, 1849 को अवध के पांचवें और अंतिम नवाब वाजिद अली शाह द्वारा इस शाही वेधशाला को बंद करने का आदेश दे दिया गया था। उनके द्वारा यह आदेश सिर्फ इसलिए दिया गया था क्योंकि वेधशाला में कार्यरत एक अनुवादक कमल-उद-दीन हैदर ने अवध के शासकों के जीवन का चित्रण करते हुए अपनी किताब सावन-ए-सलातीन-ए-अवध में उनका चित्रण खराब रूप से किया था।
इस वेधशाला को कलकत्ता से प्रकाशित लखनऊ पंचांग के प्रकाशन और खगोल विज्ञान से जुड़ी अंग्रेजी पुस्तकों और पत्रिकाओं के अनुवाद का श्रेय दिया जाता है। 1857-1858 के स्वतंत्रता संग्राम में तारे वाली कोठी ने एक अहम भूमिका निभाई थी, ऐसा कहा जाता है कि यह मौलवी अहमद -उल्ला शाह (जो अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में जनता के प्रमुख नेताओं में से एक थे) की अस्थायी सभा के बैठक का स्थान था। ऐतिहासिक वृत्तांतों के अनुसार, यह वह कोठी थी जहां अवध के राजा और तालुकदार 2 नवंबर, 1857 को इकट्ठे हुए और उन्होंने बेगम हजरत महल और प्रिंस बिरजिस क़ादर (Prince Birjis Qadr) के समर्थन में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ने और अंत तक लड़ने की घोषणा पर हस्ताक्षर किए थे। लेकिन 1858 के दौरान संघर्ष में कोठी को व्यापक रूप से क्षति हुई थी। वहीं वर्तमान समय में तारे वाली कोठी, भारतीय स्टेट बैंक द्वारा अपने प्रधान कार्यालय के हिस्से के रूप में उपयोग की जा रही है।
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