प्राचीन भारत एक ऐसा स्थल था जहाँ पर विभिन्न धर्मों आदि का विकास हुआ तथा कितने ही धर्म यहाँ पर बने और फले फूलें। इन धर्मों में से मुख्य हैं सनातन, बौद्ध तथा जैन धर्म, इन धर्मों को शह देने का तथा प्रचारित प्रसारित करने का कार्य यहाँ के राजाओं ने तथा यहाँ के व्यापारी वर्ग ने बड़े पैमाने पर किया। प्राचीन भारतीय मूर्तियों को देखने पर यह तो सिद्ध हो जाता है की यहाँ पर एक ही कलाकार विभिन्न धर्मों की मूर्तियाँ बनाने का कार्य करता था। भारतीय मूर्ती परंपरा की यदि बात करें तो इसमें मूर्तियों की कला का निर्धारण स्थान के माध्यम से होता है ना की धर्म के माध्यम से, उदाहरण के लिए मथुरा कला, सारनाथ कला, गंधार कला आदि, इनके अलावां विभिन्न वंशों के आधार पर भी कला का निर्धारण किया जाता था जैसे की गुप्त कला, मौर्य कला, परमार कला, प्रतिहार कला आदि। इस लेख के माध्यम से हम जैन मूर्तिशास्त्र के इतिहास के विषय में चर्चा करेंगे। जैन धर्म भारत के प्राचीनतम धर्मों में से एक हैं, तथा इसमें कुल 24 तीर्थंकर हैं। जैन धर्म के मूर्ती शैली की बात करें तो ये हिन्दू और बौद्ध दोनों मूर्ती निर्माण शैली तथा मूर्तिशास्त्र से मेल खाती है। प्राचीन भारतीय मूर्ती कला का विकास 4थी शताब्दी ईसापूर्व से शुरू हो जाती है जो की अनेकों बदलाओं के साथ 16वीं 17वीं शताब्दी तक प्रचलित थी। भारत पर इस्लामी शासन की कारण जैन विस्तार पर रोक लगी परन्तु यह पूर्ण रूप से ख़त्म नहीं हुआ और यही कारण है की वर्तमान में भी हमें जैन प्रतिमाएं आदि देखने को मिल जाती हैं। जैन धर्म के वास्तु की बात करें तो इसमें भी बौद्धों की तरह ही हमें गुफा स्थापत्य, मंदिर स्थापत्य तथा स्तूप स्थापत्य देखने को मिलता है। जैन और हिन्दू धर्म के मंदिरों में भी हमें कोई ख़ास फर्क देखने को नहीं मिलता बस मुख्य देवता के आधार पर इन मंदिरों का विभाजन किया जाता है। जैन मंदिरों के द्वार शाखा पर हमें जैन तीर्थंकर की ध्यान मुद्रा में अंकन देखने को मिलता है तथा साथ ही साथ मंदिर के गर्भगृह में हमें जैन तीर्थंकर की प्रतिमा देखने को मिलती है। हिन्दू मंदिरों के ही तर्ज पर अम्बिका, कुबेर आदि का अंकन हमें जैन मंदिरों पर भी देखने को मिलता है, यक्ष, यक्षिणी आदि का भी अंकन हमें जैन मंदिरों पर देखने को मिलता है। जैन धर्म से जुड़े यदि मंदिरों की बात की जाए तो दिलवाडा के जैन मंदिर, खजुराहो के जैन मंदिर, उन के जैन मंदिर आदि प्रमुख हैं, इनके अलावां यदि स्थापत्य की बात की जाए तो उदयगिरी खंडगिरी, एलोरा, ग्वालियर आदि स्थानों को देखा जा सकता है। जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के विषय में बात की जाए तो मुख्य रूप से तीर्थंकर की प्रतिमाओं को वस्त्रविहीन ही दिखाया जाता है तथा इसके अलावां तीर्थंकरों के छाती पर श्रीवत्स का अंकन किया गया रहता है। बाहुबली, पार्श्वनाथ, महावीर, ऋषभनाथ आदि प्रमुख जैन तीर्थंकर हैं जिनकी प्रतिमाएं हमें बड़े पैमाने पर देखने को मिलती हैं। बाहुबली की प्रतिमा में बाहुबली को खड़े हुए अवस्था में दिखाया जाता है तथा उनके ऊपर वनस्पति के बेल का अंकन किया जाता है, पार्श्वनाथ के सर के ऊपर कई मुख वाले नागों का अंकन किया जाता है। जैन धर्म में स्वेताम्बर और दिगंबर मूर्तियों में कुछ मामूली अंतर ही हमें देखने को मिलते हैं। लखनऊ संग्रहालय में एक पूरी व्यवस्थित जैन वीथिका का निर्माण किया गया है जिसमे हमें विभिन्न प्रतिमाओं को देख सकते हैं। इन प्रतिमाओं में गोमेद अम्बिका, तीर्थंकर तथा अन्य कई और प्रतिमाएं रखी हुयी हैं जो की जैन धर्म से सम्बंधित हैं।
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