सांप सपेरा की हजारों साल पुरानी जोड़ी

लखनऊ

 15-07-2020 06:01 PM
रेंगने वाले जीव

भारतीय बाजारों और त्योहारों के अवसर पर सपेरों का वहां होना और अपनी बीन की धुन पर नागों को नचाना एक आम दृश्य है। विश्व के सबसे जहरीले सांपों को नियंत्रित करके यह सपेरे भीड़ को मोहित कर लेते हैं, लेकिन भारत की यह अनोखी कला धीरे-धीरे खत्म होनी शुरू हो गई है क्योंकि जानवरों के अधिकारों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता इसका विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि यह क्रूरता पर आधारित कला है। आजकल सपेरे को ढूंढना आसान काम नहीं है, यहां तक कि नाग पंचमी पर भी। सपेरों द्वारा नागों के करतब दिखाने की कला क्या है, यह कैसे काम करती है, इसका इतिहास क्या है, भारत में आज की स्थिति क्या है और यह लुप्त होने की कगार पर क्यों है- यह सारे सवाल लोगों के मन में उठते रहते हैं।

भारतीय संस्कृति और परंपरा में सपेरा जाति

भारत विभिन्न संस्कृति और परंपराओं का देश है। देश की प्राचीन संस्कृति के रंगों में सपेरा जाति की भूमिका रही है। देश के सभी हिस्सों में सपेरा जाति के लोग रहते हैं। भुवनेश्वर के नजदीकी गांव पद्मकेश्वरपुर को एशिया में सपेरों का सबसे बड़ा गांव माना जाता है। इस गांव में सपेरों के करीब साढ़े पांच सौ परिवार रहते हैं और हर घर के पास कम से कम 10 सांप तो होते ही हैं। सपेरों ने लोक संस्कृति को ना केवल पूरे देश में फैलाया, बल्कि विदेशों में भी अपनी मधुर धुनों के आगे लोगों को नाचने के लिए मजबूर कर दिया। सपेरा द्वारा बनाई जाने वाली मधुर तान किसी को भी अपने मुंह पाश में बांधने की क्षमता रखती है। ढपली, तुंबा और बीन जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों के माध्यम से यह किसी को भी सम्मोहित कर देते हैं।
प्राचीन कथाओं के अनुसार भारत के उत्तरी भाग पर नाग वंश के राजा वासुकी का शासन था। उसके शत्रु राजा जन्मेजय ने उसे मारने का प्रण ले रखा था। दोनों राजाओं के बीच युद्ध शुरू हुआ, लेकिन ऋषि आस्तिक की सूझबूझ से दोनों के मध्य समझौता हो गया और नाग वंशज भारत छोड़कर भागवती (वर्तमान में दक्षिण अमेरिका) जाने पर राजी हो गए। गौरतलब है कि यहां आज भी पुरातन नाग वंशजों के मंदिरों के दुर्लभ प्रमाण मौजूद हैं।
सपेरा परिवार का मानना है कि उनके बच्चे बचपन से ही सांप और बीन से खेलकर निडर हो जाते हैं। आम बच्चों की तरह इनके बच्चों को खिलौने तो मिल नहीं पाते, इसलिए उनके प्रिय खिलौने सांप और बीन ही होते हैं। सांपों को काबू में करना इनका शौख बन जाता है।
सिर पर पगड़ी, तन पर भगवा कुर्ता, साथ में गोल तहमत, कानों में मोटे कुंडल, पैरों में नुकीली जूतियां और गले में ढेरों मनको की माला पहने यह सपेरे कंधे पर दुर्लभ सांप डाल कर्णप्रिय धुन के साथ गली-कूंचों में घूमते रहते हैं। यह नाग पंचमी, होली, दशहरा, और दिवाली के मौके पर अपने घरों को लौटते हैं। इन दिनों इनके अपने मेले आयोजित होते हैं।
सभी सपेरे इकटठे होकर सामूहिक भोज रोटड़ा का आयोजन करते हैं। यह आपसी झगड़ों का निपटारा कचहरी में ना करके अपनी पंचायत में करते हैं। सपेरे, नेपाल, असम, कश्मीर, मणिपुर, नागालैंड वह महाराष्ट्र के दुर्गम इलाकों से बिछुड़िया, कटैल, धामन, डोमिनी, दूधनाग, तक्षकए पदम्, दो मुहा, घोड़ा पछाड़, चितकोडिया, जलेबिया, किंग कोबरा और अजगर जैसे भयानक जहरीले नागों को अपनी जान की बाजी लगाकर पकड़ते हैं। बरसात का मौसम सांप पकड़ने के लिए सबसे अच्छा माना जाता है, क्योंकि इस मौसम में सांप बिल से बाहर कम ही निकलते हैं।

सांपों से जुड़े आम भ्रम

वास्तविकता यह है कि भारत में 15 से 20 फ़ीसदी सांप ही विषैले होते हैं। कई साँपों की लंबाई 10 से 30 फीट तक होती है। सांप पूर्णतया मांसाहारी जीव है। इसका दूध से कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन नाग पंचमी पर कुछ सपेरे सांप को दूध पिलाने के नाम पर लोगों को धोखा देकर दूध बटोरते हैं। सांप रोजाना भोजन नहीं करता। अगर वह एक मेंढक निकल जाए तो चार-पांच महीने तक उसे भोजन की जरूरत नहीं होती। सांप बहुत ही संवेदनशील और डरपोक प्राणी होता है। वह खुद कभी नहीं काटता। वे अपनी सुरक्षा और बचाव की प्रवृत्ति की वजह से फन उठाकर फुनकारता और डराता है। किसी के पांव से अनायास दब जाने पर काट भी लेता है, लेकिन बिना कारण वे ऐसा नहीं करता। सांप को लेकर समाज में बहुत से भ्रम हैं, मतलब सांप के जोड़े द्वारा बदला लेना, इच्छाधारी सांप का होना, दुग्ध पान करना, मणि निकालकर उसकी रोशनी में नाचना- यह सब काल्पनिक है। सांप की उम्र के बारे में सपेरों का कहना है कि उनके पास बहुत से सांप ऐसे हैं, जो उनके पिता, दादा, और परदादा के जमाने के हैं। कई सांप तो ढाई सौ से 300 साल तक भी जिंदा रहते हैं। पौ फटते ही सपेरे अपने सिर पर सांप की पिटारी रख कर दूरदराज के इलाकों में निकल पड़ते हैं। यह सांपों के करतब दिखाने के साथ-साथ कई जड़ी-बूटियां और रत्न भी बेचते हैं। अतिरिक्त आमदनी के लिए सांप का विष मेडिकल इंस्टिट्यूट को बेचते हैं। किंग कोबरा और कौंच के विष के ₹200 से ₹500 तक मिल जाते हैं, जबकि आम सांप का विष ₹25 से ₹30 में बिकता है।

विलुप्त होती कला के कारण

आधुनिक चकाचौंध में सपेरों की प्राचीन कला लुप्त होती जा रही है, बच्चे भी सांप का तमाशा देखने के बजाय ,टीवी देखना या वीडियो गेम खेलना पसंद करते हैं। ऐसे में सपेरों के लिए दो वक्त की रोटी जुटानी मुश्किल हो रही है। सपेरों की प्रशासन से शिकायत है कि उनके संरक्षण के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। काम की तलाश में सपेरों को दरबदर भटकना पड़ता है। इनकी आर्थिक स्थिति दयनीय है। बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। सपेरों का मानना है इसके लिए उनके समाज में फैली अज्ञानता एक बड़ा कारण है। बहुत से सपेरों ने यह काम छोड़ दिया है। वे मजदूरी या दूसरा काम करने लगे हैं। सपेरे के काम में दिन में ₹50 कमाना पहाड़ से दूध की नदी निकालने से कम नहीं है, लेकिन अपने पेशे से लगाव के कारण सपेरे आज तक सांपों को लेकर घूमते हैं।

40 साल पुराने प्रतिबंध के बावजूद जारी है स्नेक चार्मिंग(Snake Charming) की परंपरा

भारत की बेदिया जाति के लोगों में सांपों को पकड़ने और बीन की धुन पर उनको नचाने का काम सदियों से होता आया है। सपेरों का कहना है कि आम रिहायशी इलाकों से सांपों को पकड़ना एक समाज सेवा का काम है। लेकिन लोगों का मानना है कि सांपों को इस तरह पकड़कर मनोरंजन का काम कराना एक क्रूर काम है। 1972 में सांपों के इस तरह के उपयोग को सरकार द्वारा वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत प्रतिबंधित किए जाने पर बेदिया जाति के लोग पूरी तरह से बेरोजगार हो गए। पोरडीह में करीब चौबीस बेदिया परिवार रहते हैं और लगभग यह सभी सांपों को पकड़ने और उन्हें प्रशिक्षित करने में लगे हुए हैं। यह बहुत ही गरीब लोग हैं। मिट्टी की झोपड़ियों में रहते हैं। सरकारी प्रतिबंध के कारण ये अपना पारंपरिक काम नहीं कर पा रहे। कानून के कारण बेदिया निवासी सांपों को ना तो पकड़ पा रहे हैं और ना ही अपना पारंपरिक स्नेक चार्मिंग का काम कर पा रहे हैं। पकड़े जाने पर इन्हें जेल और भारी जुर्माना झेलना पड़ता है। बेदिया सपेरे इस प्रतिबंध से बहुत नाराज हैं क्योंकि उनका काम इतिहास और संस्कृति के संरक्षण का हिस्सा है। इसके अलावा आबादी वाले इलाकों से सांपों को पकड़ कर वह समाज सेवा भी करते हैं।
मनोरंजक तथ्य

सांपों के कान नहीं होते, इसीलिए सपेरे की बीन पर बजती मदमस्त धुन सांप नहीं सुन पाते। वास्तव में वे बीन के हिलने डुलने पर प्रतिक्रिया स्वरूप अपने बचाव में नाचते हैं। बीन की हरकतों को सांप धमकी की तरह लेते हैं और कभी-कभी जोश में आकर बीन पर लपकते भी हैं। बेदिया के सपेरा खासतौर पर भारतीय कोबरा के साथ काम करते हैं। कोबरा, जो कि एक जहरीला सांप होता है और जो भारत में 1 साल में 10000 लोगों की जान ले लेता है।

चित्र सन्दर्भ:
मुख्य चित्र में आदिकाल में सपेरों के समूह का कलात्मक चित्र है। (Publicdomainpictures)
द्वितीय चित्र में आधुनिक सपेरे को दिखाया गया है। (Pexels)
तीसरे चित्र में मिथक काल से लेकर वर्तमान तक सपेरों को तीन चित्रों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। (Prarang)
चौथे चित्र में आधुनिक राजस्थानी सपेरों के दो सदस्यों को दिखाया गया है। (Pexels)
अंतिम चित्र में उन्नीसवे दशक के सपेरे का व्यक्ति चित्र दिखाया गया है। (Wikimedia)
सन्दर्भ:
https://www.npr.org/2011/08/08/139086119/in-india-snake-charmers-are-losing-their-sway
https://en.wikipedia.org/wiki/Snake_charming
https://bit.ly/2ssKVz4
https://handluggageonly.co.uk/2016/01/26/heres-a-really-important-thing-you-need-to-know-about-snake-charming/



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