लखनऊ की हस्तकलाएं

लखनऊ

 06-10-2017 07:43 PM
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान
सजावटी सामान से लेकर रोजमर्रा से जुड़े साधनों में कई ऐसी वस्तुएं हम प्रयोग में लाते हैं जिनका सीधा ताल्लुक हस्तकला से है। पीतल के बने हांडे, लकड़ी की बनी कलछी, चिकनकारी किया हुआ कुर्ता या तरह-तरह के मिट्टी के बरतन, हर स्थान पर हस्तकला का ही प्रताप है। हस्तकला से किसी स्थान का महत्व अत्यन्त बढ़ जाता है और उस स्थान को अपनी पहचान भी देता है जैसे चंदेरी (ज़री की साड़ी), बनारस (बनारसी साड़ी), सहारनपुर (लकड़ी का काम), रामपुर (ज़री ज़रदोजी) आदि के लिए प्रसिद्ध हैं। लखनऊ शहर की स्थापना यदि देखी जाये तो 18वीं शताब्दी (1775) में असफ-उद दौला (सुजा-उद-दौला का पुत्र) उनके द्वारा की गयी थी। लखनऊ के निर्माण के साथ ही यहाँ पर कई प्रकार के निर्माण किये गये व कई प्रकार की कलाँओं को आज़माया गया और बढ़ावा मिला इसी कारण यहाँ पर हस्तशिल्प का विकास भी हुआ। वर्तमान मे लखनऊ के प्रमुख हस्तशिल्पों की बात की जाये तो यहाँ पर तीन प्रमुख हस्तशिल्प हैं- 1- चिकनकारी 2- अस्थि शिल्प (हड्डियों पर बनाया जाने वाला शिल्प) 3- यहाँ के चिनहट में बनाये जाने वाले मिट्टी के बर्तन उपरोक्त वर्णित समस्त हस्तशिल्पों में लखनऊ में चिकनकारी ही वह हस्तशिल्प है जिसको एक विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ है परन्तु अन्य दोनों हस्तशिल्पों में अस्थिशिल्प मरणासन्न अवस्था में है। यदि चिकनकारी की बात की जाये तो इसका अर्थ व इतिहास कुछ इस प्रकार का है- अर्थ: चिकनकारी का वास्तविक अर्थ कपड़ों कि सुई से कढाई को कहा जाता है। इतिहास: यह कला भारत के प्राचीनतम कपड़ा सिलने कि कलाओं में से एक है। इसका प्राचीनतम काल 3 शती ई. पू. माना जा सकता है। कुछ तथ्यों व वर्णित लेखों के अनुसार मेगस्थनीज के लिखे दस्तावेजों मे भारत मे होने वाले सुई के फूलदार सिलाई का विवरण मिलता है जो सम्भवतः चिकनकारी ही थी। अजंता की भित्तिचित्रों मे भी चिकनकारी के साक्ष्य मिलते है। राजा हर्ष के काल से भी चिकनकारी के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। उपरोक्त वर्णित साक्ष्यों के अनुसार भारत में चिकनकारी का प्रचलन बहुत पहले से था परन्तु मुग़ल काल में इस कला का विकास अभूतपूर्व रूप से हुआ, मुग़ल कालीन दस्तावेजों को आधार बनाया जाये तो यह पता चलता है कि इस कला का सर्वप्रथम प्रयोग नूरजहाँ ने किया था तथा उसी समय से इस कला का विकास एवं विस्तार हुआ। लखनऊ कि स्थापना के बाद यह कला यहाँ पर आयी और यहाँ पर बस गयी। आज वर्तमान समय मे यह कला विश्व भर में प्रसिद्ध है। चिकनकारी उद्योग आज करीब 80000 लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है। अस्थिकला का इतिहास यदि देखा जाये तो इसका काल 35,000 वर्ष पहले तक जाता है। विश्व के कुछ स्थान जैसे कि स्पेन का अल्तमिरा व भारत का मिर्ज़ापुर वह स्थान हैं जहाँ से प्राप्त हड्डियों की बनी मूर्तियाँ कदाचित विश्व कि प्राचीनतम मूर्तियों में से एक हैं। अस्थि शिल्पकला प्राचीनतम समय से लेकर आधुनिक जगत तक अनवरत चली आ रही है। भारत मे विभिन्न स्थानों पर अस्थि शिल्प के कई रूप हैं। मध्यकाल में भारत में अस्थिकला अपने चरम पर थी। यदि लखऩऊ की बात की जाये तो यहाँ पर इस कला का आगमन करीब 300 वर्ष पूर्व लाहौर से हुआ। वहाँ से आये कारीगरों ने यहाँ पर अस्थियों व हाथी दाँत पर विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ उकेरना शुरू किया। जालीदार कला यहाँ कि विशेषता है तथा अन्य कई प्रकार के अस्थि से बने शिल्प यहाँ की शिल्पकला की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करते हैं। वर्तमान परिस्थितियों मे हाथी दांत को बंद कर दिए जाने के बाद यहाँ के शिल्पकार भैंस व ऊंट कि अस्थियों से शिल्प का निर्माण करते हैं। मिट्टी के बर्तनों की पुरातात्विक दृष्टिकोण से एक खास अहमियत होती है। यह एक ऐसा साधन है जिससे विभिन्न प्रकार के संस्कृतियों पर प्रकाश पड़ता है, तथा तकनीकी विकास का भी ज्ञान हमको होता है। पुरातात्विक भाषा में मिट्टी के बर्तनों को मृदभांड नाम से जाना जाता है तथा प्राचीनकाल से ही इनके कई रूप हमको देखने मिलते हैं जैसे- लाल, धूसर, चित्रित, कृष्ण (काला) मृदभांड आदि। मिट्टी के बर्तनों के कालक्रम को इनके रिम या सरल भाषा में किनारा या छल्ले के प्रकारों को देखने मात्र से ही बताया जा सकता है क्यूँकी हर काल की अपनी एक अलग निर्माण शैली होती थी। लखनऊ की बात की जाये तो यह कहना सर्वथा गलत नहीं होगा यहाँ के चिनहट में बनने वाले मिट्टी के बर्तन एक नही अपितु अनेकों प्रकारों को अपने मे समाहित किये हुये हैं। यहाँ पर विशिष्ट चमकदार बर्तनों को बनाया जाता है। यहाँ के बने मिट्टी के बर्तनों की अपनी एक अलग शैली व प्रकार होता है। यहाँ पर मिट्टी के बर्तन के अलावा मिट्टी से अन्य वस्तुओं का भी निर्माण किया जाता है। यहाँ के कारिगरों की कुल संख्या करीब 200 है। उपरोक्त दिये तथ्यों से यह प्रमाण मिलता है की हस्तशिल्प ऐतिहासिक ही नहीं अपितु रोजगार व कला के भी दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 1. एन आउटलाइन ऑफ़ इंडियन प्रीहिस्ट्री: डी.के. भट्टाचार्य 2. एशियन एम्ब्रायडरी: जसलीन धमीजा 3. मार्ग- "लखनऊ- देन एंड नाउ", संस्करण 55-1, 2003


RECENT POST

  • नदियों के संरक्षण में, लखनऊ का इतिहास गौरवपूर्ण लेकिन वर्तमान लज्जापूर्ण है
    नदियाँ

     18-09-2024 09:20 AM


  • कई रंगों और बनावटों के फूल खिल सकते हैं एक ही पौधे पर
    कोशिका के आधार पर

     17-09-2024 09:18 AM


  • क्या हमारी पृथ्वी से दूर, बर्फ़ीले ग्रहों पर जीवन संभव है?
    पर्वत, चोटी व पठार

     16-09-2024 09:36 AM


  • आइए, देखें, महासागरों में मौजूद अनोखे और अजीब जीवों के कुछ चलचित्र
    समुद्र

     15-09-2024 09:28 AM


  • जाने कैसे, भविष्य में, सामान्य आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, पार कर सकता है मानवीय कौशल को
    संचार एवं संचार यन्त्र

     14-09-2024 09:23 AM


  • भारतीय वज़न और माप की पारंपरिक इकाइयाँ, इंग्लैंड और वेल्स से कितनी अलग थीं ?
    सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)

     13-09-2024 09:16 AM


  • कालिदास के महाकाव्य – मेघदूत, से जानें, भारत में विभिन्न ऋतुओं का महत्त्व
    जलवायु व ऋतु

     12-09-2024 09:27 AM


  • विभिन्न अनुप्रयोगों में, खाद्य उद्योग के लिए, सुगंध व स्वाद का अद्भुत संयोजन है आवश्यक
    गंध- ख़ुशबू व इत्र

     11-09-2024 09:19 AM


  • लखनऊ से लेकर वैश्विक बाज़ार तक, कैसा रहा भारतीय वस्त्र उद्योग का सफ़र?
    मध्यकाल 1450 ईस्वी से 1780 ईस्वी तक

     10-09-2024 09:35 AM


  • खनिजों के वर्गीकरण में सबसे प्रचलित है डाना खनिज विज्ञान प्रणाली
    खनिज

     09-09-2024 09:45 AM






  • © - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.

    login_user_id