दर्शन शास्त्र में शरीर ,मस्तिष्क और आत्मा को एक निरंतरता में माना है, लेकिन पूर्वी और पश्चिमी विचार धाराएं कभी एकमत नहीं हुईं। पश्चिमी दर्शन ग्रीक से और पूर्वी दर्शन भारत से उत्पन्न हुआ। ग्रीक और पश्चिमी दार्शनिक वस्तु की बात करते हैं। भारतीय दार्शनिक चेतना की बात करते हैं। बहुत शताब्दियों तक पश्चिमी चिंतक वस्तु के अलावा किसी भी चीज को वास्तविक मानने को तैयार नहीं थे। उनका मानना था यह है वस्तु , मैं इसे देख और छू सकता हूं, इसलिए यही सच है। योग और वेदांत में, वस्तु और चेतना आपस में जुड़े हुए हैं। आधुनिक विज्ञान में भौतिक शास्त्र योग की ही भाषा बोलता है। आधुनिक भौतिक शास्त्र और प्राचीन योग समानांतर ढंग से पदार्थ और चेतना की व्याख्या करते हैं। शरीर, मस्तिष्क और आत्मा परस्पर जुड़े हुए हैं, आपस में संबंध हैं और एक दूसरे में व्याप्त हैं। इसलिए एक व्यक्ति तीन चीजों के मेल का प्रतिनिधि है।
स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, अचेतन शरीर
इन तीनों शरीरों से मिलकर हम सबकी रचना होती है। लेकिन ये बड़ा स्थूल विभाजन है। प्रत्येक शरीर का एक आयाम होता है और एक परत। आप उसे एक क्षेत्र कह सकते हैं। जैसे आप इलैक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड या रेडियो एक्टिव फील्ड कहते हैं, ठीक इसी प्रकार के क्षेत्र आपके शरीर में होते हैं। वेदांत में इसे कोश कहते हैं, जिनका मतलब परत होता है। ये पांच कोशाएं होती हैं- अन्नामाया, प्रनाम्या, मनोमाया, विजनन्माया और आनंद माया।तीन शरीरों के आगे और उपविभाजन होते हैं जो आपके दैनिक अनुभवों की तीन स्थितियों को दर्शाते हैं।
प्रतिदिन आपको तीन तरह के अनुभव होते हैं। एक जागने का अनुभव जिसे आप अपनी इंद्रियों और मस्तिष्क से महसूस करते हैं।दूसरा अनुभव स्वप्न (सपना) है। इसे आप इंद्रियों से नहीं, अवचेतन मस्तिष्क से अनुभव करते हैं। तीसरा अनुभव नींद या निद्रा है जिसमें न समय न स्थान, न अपने बारे में और ना ही किसी चीज के बारे में जानकारी होती है। लेकिन जब सुबह आप उठते हैं तो कहते हैं कि कल नींद अच्छी आई, तो हर दिन व्यक्ति इन तीन अनुभवों से गुजरता है। ये अनुभव एक खास क्षेत्र से संबंधित होते हैं। जब आप किसी खास क्षेत्र से जुड़ते हैं तो एक अनुभव होता है, जब आप एक क्षेत्र या आयाम बदलते हैं तो अनुभव भी बदल जाता है।उदाहरण के लिए, अगर आप उत्तरी ध्रुव पर जाएंगे तो ठंड लगेगी और अगर अफ्रीका देश में जाएंगे तो गर्मी लगेगी।
तीन गुण
मनुष्य का निर्माण पांच कोशों से होता है , लेकिन ये पांच कोशाएं अपेक्षाकृत निम्न अस्तित्व से संबंधित होती हैं, परम ज्ञान से नहीं। ये तीन गुणों से नियंत्रित होती है-सात्विक,रजस और तामसिक। यहां गुण का मतलब गुणवत्ता, विभाग या विशेषता से नहीं है। ये तीनों गुण प्रकृति से जुड़े हैं। इस संदर्भ में प्रकृति से मतलब खूबसूरत जगहों,पहाड़ और चोटियों से नहीं है। दर्शन शास्त्र में प्रकृति का मतलब है सार्वभौमिक नियम (UNIVERSAL LAW)। यही सार्वभौमिक नियम सभी को नियंत्रित करता है, छोटे से लेकर बड़े को। यह सबमें अन्तर्निहित होता है। पशु-पक्षी, वृक्ष, मनुष्य सब में। मेरा नियंत्रक मेरे अंदर स्थित है और यही नियम है। यही प्रकृति है, जो तीन गुणों की सहायता से सभी नियमों का पालन नियंत्रित करती है।यही तीन गुण पांचों कोशों को नियंत्रित करते हैं। तीन गुण मिलकर काम करते हैं। एक गुण से अकेले कुछ भी नियंत्रित नहीं होता।
यहां हम योग को कहां स्थापित करें? योग के विभिन्न अभ्यास कोशों के तंत्र को शुद्ध करते हैं। इससे वह प्रत्येक कोश में गुणों की मात्रा को बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए अगर शरीर की प्रवृत्ति तामसिक अधिक है तो हठ योग का अभ्यास, सात्विक है तो भोजन और एक अच्छे दैनिक जीवन से आप सात्विक गुण शरीर में बढ़ा सकते हैं। जब इन पांच कोशों में तीन गुणों की मात्रा योग के अभ्यासों से बदली जा सकती है, एक संतुलन बनता है और उससे ज्यादा चेतना पैदा होती है।
कोश पर बहुत सी किताबें लिखी गई हैं, लेकिन तीन बहुत प्रामाणिक ग्रंथ हैं- विवेकचूड़ामणि रचनाकार, आदि शंकराचार्य पंचदाशी (योग और वेदांत की पारिभाषिक शब्दावली), सामाख्या सूत्र।
इस प्रकार पांच कोशाएं केवल मनुष्य जाति की अकेली संपत्ति नहीं हैं। इस ब्रह्मांण में जिस किसी के पास एक शरीर है, उसके पास पांच कोशिकाएं भी हैं। लेकिन इन पांच कोशओं से भी परे है – पूर्ण (परम) स्व।
वेदांत विचार के अनुसार आत्मा पांच परदों में घिरी होती है –अनम्य,प्रनम्य, मनोमय, विजन्नमय, और आनंदमय। इसके बाद तीन शरीरों के आगे उपविभाजन भी हैं जो आपकी दैनिक तीन स्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि इस तरह आत्मन या आत्मा की सुरक्षा परत व्याख्या वेदांत की अपनी अलग पहचान है। आत्मा की संकल्पना सभी महान धर्मों में एक समान है। सभी मत शरीर और आत्मा के बीच के संबंध के ज्ञान पर जोर देते हैं।
वेदांतिक दर्शन के अनुसार कोश, जिसे खोल भी कहा जाता है, आत्मन या स्व का आवरण होती है।यहां पांच कोश होती हैं, और अक्सर एक सूक्ष्म शरीर में प्याज की परतों की तरह उनकी व्याख्या की जाती है।
उत्पत्ति
पांच कोश, तैतिरिया उपनिषद में इनके विषय में विस्तार से बताया गया है।
पांच कोश
अन्नमय कोश- ये शारीरिक स्व की परत होती है। पांचों कोषा से अधिक ठोस होती है। अन्न से पोषण के कारण इसे अन्नमय नाम दिया गया है। इस परत के माध्यम से मनुष्य त्वचा , मांस, हड्डियों और धूलि की अपने जीवन में पहचान प्राप्त करते हैं। भौतिक शरीर की रचना भोजन के सार से होती है। जन्म और मृत्यु अन्नमय कोश के गुण होते हैं।
प्रन्मय कोश-प्रन्मय का मतलब प्राण से निर्मित, महत्वपूर्ण सिद्धांत, वो बल जो शरीर और मन को जोड़ता और जीवनप्रद बनाता है। ये पूरे जीव पर हावी रहती है, इसकी एक शारीरिक अभिव्यक्ति है श्वसन। जबतक ये जीवनप्रद सिद्धांत जीव में सक्रिय रहता है, जीवन निर्बाध रहता है। पांच सक्रिय अंगों के साथ ये जीवनप्रद परत का निर्माण करती है। विवेकचूड़ामणि में इसे वायु का रूपांतरण बताया गया है। ये शरीर में प्रवेश करती है और निकल जाती है।
मनोमय कोश- मनोमय का अर्थ है मन से उत्पन्न। पांच संवेदक अंगों के साथ मन मनोमय कोश का निर्माण करता है । मनोमय कोश अन्नमय और प्रन्मय कोश के मुकाबले ज्यादा सच्चे अर्थों में वक्तित्व का निर्माण करती है। मैं और मेरा की विविधता का कारण मनोमय कोश है। आदि शंकराचार्य इसकी समानता बादलों से करते हैं जो हवा के कारण आते हैं और उसी के कारण वापस चले भी जाते हैं। ठीक इसी तरह मनुष्य का बंधन मन के कारण होता है और मुक्ति भी उसी के द्वारा होती है।
विजन्नमय कोश – विजन्नमय का अर्थ है विजन्न या ज्ञान से जन्मा। वो शक्ति जो पहचान करती है ,निर्धारित करती है या इच्छा करती है। चत्तांपी स्वामीकल विजन्नमय को ज्ञान और पांच इंद्रियों के समनवय के रूप में परिभाषित करते हैं। ये परत अधिक बुद्धि और धारणा के अंगों के संयोग से बनी है। शंकर के अनुसार बुद्धि अपने संशोधनों और ज्ञान के अंगों के साथ व्यक्ति के स्थान परिवर्तन का कारण तैयार करती है। ये ज्ञान की परत, जिसके पीछे मुहूर्त की शक्ति का प्रतिबिंब महसूस होता है, प्रकृति का एक परिवर्तित रूप है। यह ज्ञान के कामों से समपन्न होती है और अपनी पहचान शरीर और उसके अंगों के साथ बनाती है।
आनंदमय कोश- आनंदमय का अर्थ है आनंद या परमानंद से निर्मित। ये पांचों कोशाओं में सबसे सूक्ष्म होती है। उपनिषदों में ये परत कहलाती है। गहरी नींद में , जब मन और इंद्रियां निष्क्रिय रहती हैं, ये तब भी सीमित जगत और स्व के बीच खड़ी रहती हैं। आनंदमय जो कि सर्वोच्च परमानंद से निर्मित है, सबसे भीतर की परत होती है।गहरी नींद के समय ये पूरी सक्रिय रहती है जबकि स्वप्न देखते या जागृत स्थिति में ये आंशिक रूप से अभिव्यक्त होती है।आनंदमय कोश आत्मन की परछायी है जो कि सत्य, सुंदरता और परमानंद की प्रतीक है।
सभी धर्मों के अनुसार आत्मा की परिभाषा क्या है?
एक रहस्यमय और आध्यात्मिक जीवन शक्ति के रूप में जो जैविक पदार्थ को उत्साहित करता है, प्रागैतिहासिक काल में मानव सभ्यता में सर्वव्यापक रूप से चर्चित आत्माओं की चर्चाएं विश्व के लगभग सभी धर्मों में प्रचलित विश्वास के रूप में मौजूद है।इसके बावजूद , वास्तविक आत्माएं यहूदी धर्म के शास्त्रों और औपचारिक बौद्ध सिद्धांतों (अनंता का मतलब है कोई आत्मा नहीं है) में नहीं पाई जाती। इनमें कहीं-कहीं कुछ परोक्ष संदर्भ आत्मा की नयी व्याख्या के मिलते हैं। कुछ लोगों का तर्क है कि ग्रीक बुतपरस्ती के दौर के बाद , आत्मा का विचार आयाजिसने क्रिश्चियन धर्म को प्रभावित किया और विश्व के अधिकांश धर्मों ने इसका स्वागत किया।
19 सवीं शताब्दी में इस तूफान का रुख पलटा।विज्ञान ने आत्मा के प्रश्न पर धर्म को मात दे दी। लंबे और विस्तृत स्नायविक और जैव-रासायनिक अनुसंधानों ने विस्तार से यह दिखाया कि आत्मा,स्व,हमारी भावनाएं और चेतना सभी जैविक और सांसारिक प्रकृति के होते हैं और किसी भी भौतिक प्रणाली की तरह नाशवान होते हैं।
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