1857 का संग्राम भारतीय इतिहास में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक बड़ी घटना थी।भारतीयों के मुताबिक यह उनकी आजादी की पहली लड़ाई थी,जिसमें मंगल पांडे की शहादत के द्वारा आजादी की अलख जली थी। तो वहीं यूरोपियन इसे इंडियन रेबेलियन ,सिपॉय म्यूटिनी आदि नामों से संबोधित करते थे।कम ही लोग जानते हैं कि इस विषय पर एक दुर्लभ और मार्मिक वर्णन से भरी हुई किताब एक ब्रिटिश अफसर के संस्मरणों पर आधारित है।
“पर्सनल एडवेंचर्स ड्यूरिंग द इंडियन रेबेलियन इन रुहेलखंड,फतेहगढ़ एंड अवध”-यह शीर्षक है रुहेलखंड की उस दुर्लभ-विस्मृत किताब का जो 1857 की आजादी की लड़ाई के दौरान रुहेलखंड के राजद्रोह की आंखोंदेखी परिस्थितियों पर आधारित हैं। इसके लेखक हैं विलियम एडवर्ड्स जो उस समय बदायूं के अंग्रेज कलेक्टर और मेजिस्ट्रेट थे। बदायूं रुहेलखंड का एक छोटा मैदानी इलाका था।इस किताब की समीक्षा तबतक अधूरी है जबतक किताब में लिखे कुछ दिलचस्प वाकये से हम रूबरू नहीं हो जाते।
“यह वाकया जबरदस्त निजी खतरे और भारी चिंताजनक परिस्थितियों में मौका मिलने पर लिखा गया था जो कि इंग्लैंड में मेरे परिवार तक पहुंच गया। इसके अगले दिन दूरदर्शिता से परिस्थितियों का आंकलन करते हुए मैं अपने सहकर्मियों के साथ कानपुर पलायन करने और जनरल हैवलॉक की सेना की टुकड़ी से जुड़ने में सफल हो गया।“ लेखक विलियम एडवर्ड ने अपनी पत्नी और बच्चे को पहले ही सुरक्षापूर्वक नैनीताल रवाना कर दिया था। वे बदायूं में अकेले थे और अपना पद भी छोड़ना नहीं चाहते थे।लेकिन हालात बहुत जल्द ही बिगड़ते चले गए।स्थानीय सिपाही बटालियनों ने बगावत कर दी और 3 हजार अपराधियों को जेल से रिहा करा दिया। तब तक आस पास के पीछे छूट गए दूसरे लोग भी एडवर्ड के साथ जुड़ गए। साथ में मिलकर वो सभी घोड़ों पर सवार होकर पलायन कर गए।उनके साथ एक अफगान और एक सिख वफादार कर्मचारी भी थे।गोलाबारी और विद्रोह की आग के बीच उन्होंने गंगा नदी पार कर ली। इसके बाद अगला सुरक्षित ठिकाना ढूंढने के लिए वे पूरे तीन महीने भटकते रहे। लेखक विलियम एडवर्ड्स स्वयं बदायूं के अंग्रेज कलेक्टर और मजिस्ट्रेट थे।रुहेलखंड के आंदोलन की स्मृति में किताब लिखते हुए लेखक ने पूरे घटनाक्रम की भयावहता ,यातना, अनिश्चितता को उसी शिद्दत के साथ अभिव्यक्त किया है जिस मन: स्थिति में उन्होंने यह घटनाक्रम जिया था।
आंदोलन और फैलती हिंसा,हत्याओं,दंगों ,लूट की खबरों को लिखते समय लेखक की दृष्टि एक प्रशासनिक अधिकारी की ही रही है। एक तरफ वह विद्रोह को नियंत्रित करने की प्रशासनिक व्यवस्थाएं बनाने के प्रयास में जुटे दिखते हैं, दूसरी तरफ समाज के ऐसे प्रभावी हिन्दू-मुस्लिम व्यक्तियों से बातचीत और मुलाकात का भी जिक्र करते हैं जो इस बढ़ते तूफान को थामने में सहायक सिद्ध हो सकते थे। वह क्षेत्र के अकेले यूरोपीय अधिकारी थे और उन पर 11 लाख लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी। किताब में एक जगह जिक्र है कि विलियम को खुफिया खबर मिलती है कि 25 मई को बदायुं में मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग दोपहर में ईद की नमाज के बाद बहुत बड़े पैमाने पर दंगा करेंगे। विलियम ने तत्काल मुस्लिम समुदाय के कुछ प्रभावी लोगों को अपने यहां स्थिति को नियंत्रित करने के बारे में बातचीत के लिये बुला लिया। वे सब धड़धड़ाते हुए आ गये। उनमें से ज्यादातर लोग बहुत आक्रामक और उत्तेजित थे। उनसे बातचीत शुरू ही हुई तो विलियम ने ध्यान दिया उनका सिख चपरासी वजीर सिंह और एक उनका अपना सुरक्षा गार्ड चुपचाप आकर विलियम की कुर्सी के पीछे खड़े हो गये। उनकी रिवॉल्वर वजीर सिंह की बेल्ट में थी और उनकी बंदूक गार्ड के हाथ में थी। इन दोंनों व्यक्तियों ने विलियम का हर परिस्थिति में साथ दिया,यहां तक की आखिरी पलायन में भी।
एक जगह विलियम जिक्र करते हैं कि उन्हें अपने अकेले की सुरक्षा की चिंता नहीं थी,बहुत से दोस्त आस-पास थे जहां वह सुरक्षित रह सकते थे।लेकिन सच यह था कि कोई भी यूरोपीय आगे नहीं आया क्योंकि वह अपने को खतरों में नहीं डालना चाहते थे। इसके विपरीत जब वह अपने घोड़े पर सवार होकर अपने साथियों डोनाल्ड और गिब्सन के साथ घर से थोड़ी ही दूर पहुंचे थे,तो सारा शहर दंगाइयों से अटा पड़ा था। तभी एक मुस्लिम भद्र पुरुष जो कि शिखू पूरब के प्रमुख थे और अकसर विलियम से मिलने आते थे,उन्होंने अपने परिवार में शरण देने का प्रस्ताव रखा। और वे विलियम को अपने घर ले भी गये। 13 तारीख को रात 10 बजे विलियम को चिरपरिचित आवाज सुनायी दी- साहब को बता दें वजीर सिंह आ गया है।विलियम उस आवाज को सुनकर खुशी से उछल पड़े। यही वजीर सिंह और उनका गार्ड आखिर तक उनके साथ रहे।
वैसे तो बिगड़ते हालात के पूर्वाभास से शंकित होकर विलियम ने अपनी पत्नी और बच्चे को नैनीताल रवाना कर दिया था,लेकिन बरेली में जिस तरह सारे यूरोपियन कत्ल किए जा रहे थे,उस स्थिति में उनके पास यह पता करने का कोई जरिया काफी दिनों तक नहीं रहा कि आखिर उनकी पत्नी और बच्चे का हुआ क्या? जैसा कि किताब का शिर्षक है –विलियम एडवर्ड्स ने अपनी कलम से ,एक प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर एक बड़े संग्राम को संभालने व नियंत्रित करने के प्रयासों में बहुत ही रोमांचक और लोमहर्षक अनुभव हासिल किए और किताब में दिए गए प्रंसग वाकई दिल को छू जाते हैं।
किताब को पढ़ते समय पाठक को लगने लगता है कि जैसे 1857 के उस क्रांतिकारी समय और माहौल की चुनौतियों में वह खुद भी शामिल है। साथ ही ये संदेश भी मिलता है कि मानवता का कोई धर्म नहीं होता। 1857 के हालातों में जहां अगर एक यूरोपीय दूसरे यूरोपीय की मदद नहीं करता,तो वहीं सालों से ब्रिटिश राज के दमन से पीड़ित भारतीय मूल के लोगों के बीच विलियम के लिए इंसानियत की मिसाल बनकर सामने आए उनके दो भारतीय कर्मचारी,जिन्होंने अंत तक उनका साथ हीं छोड़ा। ऐसे माहौल में जहां कि हिन्दु और मुसलमान मिलकर गाय और सुअर की चर्बी से बने कारतूसों को अपनी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला प्रयोग बताते हुए सड़कों पर उतर आए थे। वहीं अचरज की बात है कि एक मुलमान और दो हिन्दुओं ने अपनी जान जोखिम में डालकर विलियम का साथ दिया।
सन्दर्भ:
1. https://bit.ly/2TDQXGG
2. https://shapero.com/96751
3. https://en.wikipedia.org/wiki/History_of_Bareilly
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