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धातुओं की खोज ने मानव जीवन को अत्यंत ही सुगम और सरल बना दिया। दुनिया भर की सभ्यताओं का जन्म मुख्य रूप से धातुओं के खोज पर ही आधारित था। यह कहना कदाचित गलत नहीं होगा की ताम्र की खोज ने भारत में सिन्धु सभ्यता को महान बनाने का कार्य किया था। तांबे की खोज के बाद उत्तर भारत और मध्य भारत में कई ऐसी संस्कृतियों ने जन्म लिया जिन्होंने यहाँ पर शहरीकरण और नगरीकरण पर भी जोर दिया था। दाइमाबाद, प्रकाश, जोर्वे, कॉपर होर्ड संस्कृति आदि। कॉपर होर्ड की बात करें तो रामपुर रजा पुस्तकालय में बने संग्रहालय में इस काल से जुड़े पुरावशेष बड़ी संख्या में रखे गए हैं। इस संस्कृति के बाद यदि कोई संस्कृति प्रकाश में आई तो उसे वैदिक काल या लौह युग कहते हैं। ऋग्वेद की अनेक रिचाओं में लोहे के विभिन्न औजारों के बारे में विस्तार से लिखा गया है।
भारत में लौह युग की शुरुआत ऋग्वेद के काल से मानी जाती है जिसका सन्दर्भ लखनऊ के समीप के दादुपुर और लाहुरदेवा से मिल जाता है अतः यह कहा जा सकता है कि इस काल में लौह युग की शुरुआत हो चुकी थी। इस कथन से यह तो सिद्ध हो जाता है कि भारत में करीब 2000 से लेकर के 1000 ईसा पूर्व के करीब लोहे का प्रयोग होने लगा था। गया, महरौली लौह स्तम्भ आदि इस कथन को सत्यापित करते हैं। महरौली का लौह स्तम्भ लोहे के अत्यंत ही शुद्ध रूप को प्रस्तुत करता है और यह सन्देश देता है कि भारत में लोहे का कार्य बड़ी ही कुशलता के साथ किया जाता रहा है। महरौली का लौह स्तम्भ करीब 600 से 1100 ईस्वी का माना जाता है, लेकिन इतना पुराना होने के बावजूद भी आज तक इसमें जंग नहीं लगा है। भारत प्राचीन काल से ही कृषि प्रधान देश रहा है यहाँ पर अनेकों सभ्यताओं ने जन्म लिया और कृषि सभी सभ्यताओं में होती रही है, यही नहीं नील घाटी की सभ्यता, मेसोपोटामिया आदि में भी कृषि के कार्य होते रहे थे। इन सभी सभ्यताओं में तांबे, कांसे और पत्थर के औजारों का प्रयोग कृषि के लिए होता था यह सब लौह युग के शुरू होने से पहले तक हो रहा था। लौह युग के शुरुआत के बाद यह एक अत्यंत ही सरल माध्यम बन गया क्यूंकि लोहा - पत्थर, ताम्बा और कांसे से कहीं ज्यादा मजबूत धातु है।
प्राचीन सभ्यताओं में हित्तियों को लोहे का कार्य करना सबसे पहले शुरू किया था। हित्ती मेसोपोटामिया साम्राज्य से सम्बन्ध रखते हैं। कुछ इतिहासकार इनको आर्य मानते हैं। हित्तियों को लोहे के पिघलाने और उसका औजार बनाने वाला माना जाता है। यह कहा जाता है कि भारत में इनके ज्ञान के बाद ही लोहे के कार्य की शुरुआत हुयी थी। दादुपुर, लहुरदेवा, चंदौली आदि के उत्खनन के बाद काफी हद तक यह माना जाने लगा की भारत में लोहे का कार्य बाहर से नहीं अपितु यहीं से जन्म लिया। जैसा कि ऋग्वेद को करीब 1500 ईसा पूर्व का माना जाता रहा है और चंदौली और राजा नल के टीले के उत्खनन के बाद जो तिथियाँ आई हैं वे करीब 1600 ईसा पूर्व तक जाती हैं। अब जैसा कि ऋग्वेद की माने तो वे मध्य गंगा के मैदानी भाग के बारे में विवरण प्रस्तुत नहीं करती और यह कभी यहाँ तक उस काल में पहुंची ही नहीं थी तो यहाँ पर लोहे का कार्य कैसे शुरू हुआ यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। उपरोक्त लिखे कथन से हम यह कह सकते हैं कि भारत में स्वतंत्र रूप से अलग से लोहे के कार्य की शुरुआत हुयी थी। प्राचीन भारत में कास्ट से लोहे का कार्य किया जाता रहा है जिसे की सरल शब्दों में कहें तो ये इस प्रकार से है- लोहे को पिघला कर एक सांचे में ढालना।
सन्दर्भ:-
1. https://bit.ly/36UoxNR
2. https://www.nature.com/articles/094520a0
3. https://bit.ly/2ZmbLoZ
4. https://bit.ly/2SfeheQ