हमारी पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु पाये जाते हैं। कुछ विशाल हैं तो कुछ बहुत ही सूक्ष्म। टार्डिग्रेड्स (Tardigrades) भी इन्हीं सूक्ष्म जीवों में से एक हैं जिन्हें पृथ्वी पर किसी भी स्थान पर, यहां तक कि लखनऊ में भी पाया जाता है। ये सूक्ष्मजीव काई और ठंडे इलाकों में रहना पसंद करते हैं और इन्हें आम तौर पर पानी के भालू (वाटर बियर - Water bear) भी कहा जाता है, इनके आठ पैर होते हैं। इनका ज़िक्र पहली बार 1773 में जर्मन जीव-विज्ञानी जोहान अगस्त एफ्राइम गोएज़ ने किया था।
टार्डिग्रेड्स प्रायः हर जगह पाये जाते हैं। ये पर्वतों से लेकर गहरे समुद्रों तक, उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों से लेकर अंटार्कटिक तक यहां तक कि ज्वालामुखी की मिट्टी में भी पाये जाते हैं। इनकी अलग-अलग प्रजातियां अत्यधिक तापमान, अत्यधिक दबाव (उच्च और निम्न दोनों), वायु में कमी, विकिरण, निर्जलीकरण वाले स्थानों में भी आसानी से जीवित रह पाने में सक्षम होती हैं। पूरी तरह से विकसित टार्डिग्रेड आमतौर पर लगभग 0.5 मिमी (0.02 इंच) लंबे होते हैं जो दिखने में छोटे और मोटे होते हैं। इनके पैरों की संख्या आठ होती है। ये अक्सर लाइकेन (Lichen) और शैवालों (काई) पर पाए जाते हैं तथा अधिकतर गीले वातावरण में रहना पसंद करते हैं। किसी भी तापमान और परिस्थितियों के लिए ये जीव अनुकूलित होते हैं। एक शोध में पाया गया कि टार्डिग्रेड -200 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक ठंडे तापमान का सामना कर सकते हैं। इनमें क्रिप्टोबायोसिस (Cryptobiosis) नामक एक क्षमता होती है जिसमें जीव लगभग मृत्यु जैसी स्थिति में चला जाता है। यह अवस्था उन्हें जीवित रहने में मदद करती है। क्रिप्टोबायोसिस में, टार्डिग्रेड्स की चयापचय गतिविधि सामान्य स्तर से 0.01% तक चली जाती है और उनके अंगों को एक शर्करा जेल (Gel) द्वारा संरक्षित किया जाता है जिसे ट्रेहलोज़ (Trehalose) कहा जाता है। वे एक बड़ी मात्रा में एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidant) भी बनाते हैं, जो उनके महत्वपूर्ण अंगों की रक्षा करता है। ये एक प्रोटीन (Protein) का उत्पादन भी करते हैं जो उनके डीएनए (DNA) को हानिकारक विकिरण से सुरक्षित रखता है। जीवित रहने के लिए टार्डिग्रेड तरल पदार्थों का सेवन करते हैं तथा शैवाल और लाइकेन का रस चूसते हैं। इनकी कुछ प्रजातियां मांसाहारी भी हैं जो अपने भोजन के लिये अन्य टार्डिग्रेड्स का शिकार कर सकती हैं। यह लैंगिक तथा अलैंगिक दोनों माध्यम से प्रजनन करते हैं तथा एक बार में एक से 30 अंडे तक दे सकते हैं।
किसी भी जीव को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन (Oxygen) तथा पानी की आवश्यकता होती है किंतु अंतरिक्ष, जहां पानी और ऑक्सीजन का कोई साधन नहीं होता, में 2007 में एक प्रयोग किया गया जिसमें टार्डिग्रेड बिना पानी, ऑक्सीजन तथा उच्च विकिरण में दस दिनों तक जीवित रहा। ये कई वर्षों तक बिना खाये-पिये रह सकते हैं और ऐसा होने पर ये अपने शरीर की हर गतिविधि को रोक देते हैं। अगर इन्हें थोड़ा पानी मिल जाये तो ये वापस अपनी पूर्व स्थिति में आ जाते हैं।
अभी कुछ समय पहले भारत ने चंद्रमा पर अपना चंद्रयान II भेजा किंतु इससे भी पहले चंद्रमा पर यह जीव पहुंच चुका था। दरअसल चंद्रयान II से पूर्व इज़राएल के आर्च मिशन फाउंडेशन (Arch Mission Foundation) ने चंद्रमा पर अपना एक स्पेस-क्राफ्ट (Space craft) भेजा किंतु कुछ तकनीकी खराबी के कारण यह चंद्रमा पर ठीक से उतर नहीं पाया और क्रैश (Crash) हो गया। यह स्पेस-क्राफ्ट अकेला नहीं था, इसमें एक लूनर लाइब्रेरी (Lunar Library) बनायी गयी थी जिसमें टार्डिग्रेड्स और मानव डीएनए को संग्रहीत किया गया था। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वहाँ टार्डिग्रेड्स अब भी जीवित हैं क्योंकि ये चंद्रमा के तापमान को आसानी से झेल सकते हैं। इसके अतिरिक्त वे निर्जलीकरण की अवस्था में ले जाए गए थे जिससे उन्हें पानी की भी कोई ज़रुरत नहीं है। टार्डिग्रेड्स चंद्रमा में विकिरण का सामना भी आसानी से कर सकते हैं और इसीलिए बहुत अच्छी सम्भावना है कि वे चंद्रमा पर अब भी जीवित हैं।
संदर्भ:
1. https://en।wikipedia।org/wiki/Tardigrade
2. https://www।livescience।com/57985-tardigrade-facts।html
3. https://www।bbc।com/news/newsbeat-49265125
4. https://bit।ly/2ZGfSLB
चित्र सन्दर्भ:
1. https://www.flickr.com/photos/petervonbagh/15994168283/in/photostream/
2. https://www.flickr.com/photos/28502132@N05/8301054965
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