हम सभी जानते ही हैं कि भारत एक ऐसा देश है जहां पशुओं और वनस्पतियों की बहुत विविध प्रजातियां पायी जाती हैं। पशुओं की इन प्रजाति में एक नाम मुर्गियों का भी शामिल है जो वर्षों से भारत में विभिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग की जा रही हैं।
मुर्गियां एक प्रकार के पालतू जानवर हैं जिन्हें वैज्ञानिक रूप से गैलस गैलस डोमेस्टिकस (Gallus Gallus Domesticus) के नाम से जाना जाता है। यह मुख्य रूप से लाल जंगलफ्लो (Jungleflow) की उप-प्रजाति है जो सबसे आम और व्यापक घरेलू जानवरों में से एक है। मनुष्य द्वारा इन्हें भोजन के स्रोत के रूप में उपयोग किया जाता है। जहां इनके अण्डों और मांस का उपभोग किया जाता है वहीं इनके पंखों से भी विभिन्न प्रकार की सामग्री बनायी जाती है।
आनुवंशिक अध्ययनों से पता चलता है कि इनकी उत्पत्ति दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्वी एशिया में हुई थी। भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाने वाली प्रजातियों की उत्पत्ति को अमेरिका, यूरोप, मध्य पूर्व और अफ्रीका से माना जाता है। मुर्गियां सर्वाहारी होती हैं जो नस्ल के आधार पर लगभग पांच से दस साल तक जीवित रह सकती है। गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड (Guinness World Record) के अनुसार दुनिया की सबसे पुरानी ज्ञात मुर्गी की मौत 16 साल की उम्र में हार्ट फेल (Heart Fail) होने से हुई थी।
तो चलिए आज जानते हैं मुर्गियों की कुछ प्रमुख भारतीय नस्लों के बारे में। भारत में मुर्गियों की प्रायः केवल चार शुद्ध भारतीय नस्लें उपलब्ध हैं जोकि निम्नलिखित हैं:
आसील
इन्हें अपनी विशालता, उच्च सहनशक्ति, राजसी चाल और लड़ाकूपन के लिए जाना जाता है। यह चमकदार होता है जिसकी गर्दन लंबी और पैर मज़बूत होते हैं।
चटगाँव
इस नस्ल को मलय के नाम से भी जाना जाता है जिसकी लोकप्रिय किस्में सफेद, काले, गहरे भूरे आदि रंग की हैं।
कड़कनाथ
इनके पैरों की त्वचा, चोंच, पैर की उंगलियां और तलवों का रंग धुमैला होता है। इनके अधिकांश आंतरिक अंग तीव्र काले रंग के होते हैं क्योंकि इनमें काले वर्णक मेलानिन (Melanin) का जमाव होता है।
बसरा
बसरा की प्रकृति सतर्क होती है। यह मध्यम आकार का पक्षी है जिसके पंख हल्के होते हैं। इसके शरीर के रंगों में व्यापक बदलाव होते रहते हैं।
इसके अतिरिक्त इनकी कुछ अन्य मुर्गीपालन किस्में भी हैं जैसे:
• झारसीम : झारखंड की एक विशिष्ट ग्रामीण किस्म
• कामरूपा : असम की दोहरे उद्देश्य की किस्म
• प्रतापधान: राजस्थान का दोहरे उद्देश्य वाला पक्षी
ग्रामप्रिया नस्ल, स्वरनाथ नस्ल, केरी श्यामा नस्ल आदि अन्य नस्लें हैं जिन्हें विभिन्न परियोजनाओं के तहत विकसित किया गया है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में हर साल लगभग 8 बिलियन मुर्गियों की खपत होती है। जिससे इनके पंखों के ढेर इकट्ठे हो जाते हैं जिनका कोई उपयोग नहीं होता। लेकिन अब ऐसा मानना है कि प्लास्टिक (Plastic) में इनके पंखों के प्रयोग से प्लास्टिक के खतरे को कम किया जा सकता है। मुर्गियों के पंखों में केराटीन (Keratin) नामक मज़बूत प्रोटीन होता है। इन्हें गर्म करके अन्य सामग्रियों के साथ मिश्रित किया जा सकता है और प्लास्टिक में ढाला जा सकता है। इस प्लास्टिक का उपयोग विभिन्न सामग्रियों जैसे जूते, फर्नीचर (Furniture), मेकअप पाउडर (Make up Powder), डायपर (Diapers) आदि के रुप में किया जा सकता है।
मुर्गियों की कई प्रजातियों में मुख्य अंतर त्वचा का होता है। कुछ में त्वचा और पैर पीले होते हैं जबकि अन्य में सफेद या काले होते हैं। पीली या सफेद त्वचा कैरोटीनॉयड (Carotenoid) की उपस्थिति या अनुपस्थिति के कारण होती है। इस विविधता का अंतर्निहित अनुवंशिक आधार अज्ञात है। वर्तमान में भारत में ऐसी मुर्गी प्रजातियों का उपयोग किया जा रहा है जिन्हें सबसे तीव्र एंटीबायोटिक (Antibiotic) दवाओं का सेवन कराया जाता है। तथा इन प्रजातियों का उपयोग दुनिया भर के लोगों द्वारा किया जा रहा है। एंटीबायोटिक का उपयोग प्रायः बीमारियों से बचने के लिए किया जाता है, किन्तु स्वस्थ पशुओं के विकास के लिए इन मुर्गियों को एंटीबायोटिक का सेवन कराया जा रहा है। इसके अत्यधिक सेवन से इन पशुओं में जो बीमारियाँ पहले आसानी से ठीक की जा सकती थीं, हो सकता है उनका इलाज काफी कठिन हो जाये क्योंकि ये बीमारियाँ कुछ समय बाद एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर सकती हैं।
सन्दर्भ:
1. https://bit.ly/2CcfgVp
2. https://bit.ly/2kBwLb3
3. https://scienceblogs.com/gregladen/2008/02/29/the-origin-of-the-chicken
4. https://en.wikipedia.org/wiki/Chicken
5. https://bit.ly/2nsgp2X
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