वर्तमान में मानव अपने मनोरंजन के लिए कई प्रकार की वस्तुओं जैसे टेलीविज़न (Television), कंप्यूटर (Computer), मोबाईल (Mobile) आदि का प्रयोग करता है। किंतु एक समय ऐसा भी था जब वह अपने मनोरंजन के लिए कठपुतलियों के प्रदर्शन या नाटक पर निर्भर रहता था। उस समय कठपुतलियों को मनोरंजन के उद्देश्य से बहुत ही अधिक पसंद किया जाता था।
वास्तव में कठपुतली रंगमंच पर किए जाने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों में से एक है जिसे विभिन्न प्रकार के गुड्डे-गुड़ियों, जोकर आदि पात्रों के रूप में बनाया जाता है। पहले के समय में इसे लकड़ी (काष्ठ) से बनाया जाता था जिस कारण इसका नाम ‘कठपुतली’ पड़ा। इसमें निर्जीव वस्तुओं का उपयोग किया जाता है जो अक्सर किसी प्रकार के मानव या पशु आकृति से मिलती-जुलती हैं। कठपुतलियों के शरीर के अंगों जैसे हाथ, पैर, सिर, आंखें आदि को हिलाने के लिए किसी छड़ या तार का उपयोग किया जाता है जिसे मानव द्वारा संचालित किया जाता है।
इस तरह के प्रदर्शन को कठपुतली उत्पादन के रूप में भी जाना जाता है। कठपुतली उत्पादन के लिए स्क्रिप्ट (Script) को कठपुतली नाटक कहा जाता है। कठपुतली रंगमंच, रंगमंच का एक बहुत ही प्राचीन रूप है जो पहली बार 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में प्राचीन ग्रीस में दर्ज किया गया था। ऐसा माना जाता है कि कठपुतली के कुछ रूप 3000 साल पहले उत्पन्न हुए थे। कठपुतलियों के प्रदर्शन का उपयोग जहां मनोरंजन के उद्देश्य से किया जाता है वहीं इसका उपयोग अनुष्ठानों और उत्सवों जैसे समारोहों में पवित्र वस्तुओं के रूप में भी किया जाता है। ये एक प्रकार के प्रतीकात्मक पुतले भी हैं जिनका उपयोग समाज में हो रही अनैतिक गतिविधियों के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए भी किया जाता है या यूं कहें कि यह सार्थक और उपयोगी संदेश भी देती हैं।
भारत में कठपुतली रंगमंच की परम्परा काफी समय से चली आ रही है। यहां तक कि इसके संदर्भ प्राचीन भारतीय महाकाव्य महाभारत में भी देखने को मिलते हैं। भारत में कठपुतली रंगमंच के लिए राजस्थान विशेष रूप से जाना जाता है। भारत में पहले वेंट्रिलोक्विस्ट (Ventriloquist) प्रोफेसर वाई. के. पाध्ये थे जिन्होंने कठपुतली प्रदर्शन के अपने तरीके का परिचय पहली बार 1920 में भारत में दिया। इसके बाद उनके पुत्र रामदास पाध्ये ने वेंट्रिलोक्विज़्म (Ventriloquism) और कठपुतली को लोकप्रिय बनाया। भारत में लगभग सभी प्रकार की कठपुतलियाँ पाई जाती हैं जो निम्नलिखित हैं:
• स्ट्रिंग कठपुतलियाँ (String Puppets) : इन कठपुतलियों का उपयोग विशेष रूप से आंध्र प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा और कर्नाटक में किया जाता है।
• छाया कठपुतलियाँ : ये कठपुतलियां ओडिशा, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु की लोकप्रिय कठपुतलियां हैं।
• ग्लव पपेट्स (Glove Puppets) : इन कठपुतलियों को ओडिशा, केरल और तमिलनाडु में विशेष रूप से पसंद किया जाता है।
• रॉड कठपुतलियाँ (Rod Puppets) : यह पश्चिम बंगाल और ओडिशा की लोकप्रिय कठपुतलियां हैं।
भारतीय राज्यों में कठपुतली परंपराएँ भिन्न-भिन्न नामों से जानी जाती हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
• आंध्र प्रदेश में छाया कठपुतली तथा स्ट्रिंग कठपुतली प्रसिद्ध हैं जिन्हें यहां क्रमशः ‘थोलू बोम्मलता’ और ‘कोय्या बोम्मलता’ कहा जाता है।
• असम में पुटल नाच कठपुतली प्रसिद्ध है जो प्रायः स्ट्रिंग और रॉड कठपुतली का एक संयोजन है।
• बिहार राज्य में रॉड कठपुतली का उपयोग किया जाता है जिसे यहां यमपुरी कहा जाता है।
• कर्नाटक में स्ट्रिंग कठपुतली और छाया कठपुतली का उपयोग किया जाता है जिन्हें क्रमशः गोम्बा अट्टा और तोगालू कहा जाता है।
• केरल में ओवा जित्गर अर्थात ग्लव कठपुतली और थोल पबवाकुथु छाया कठपुतली प्रसिद्ध है।
इसी प्रकार से अन्य राज्यों में भी इन्हें विविध नामों से पुकारा तथा पसंद किया जाता है।
तकनीकों के आविष्कार के कारण आज प्राचीन कलाओं का महत्व कुछ कम हो गया है। एक समय था जब लखनऊ की गुलाबो-सीताबो नामक कठपुतलियां लोगों के जीवन का हिस्सा बन गयी थीं। किंतु कंप्यूटर गेमों (Computer Games) के आगमन से ये कहीं गुमनामी में बह गयीं। खुशी की बात यह है कि गुमनामी में बही ये कठपुतलियां अभिनेता अमिताभ बच्चन की आगामी फिल्म (Film) ‘गुलाबो-सीताबो’ के माध्यम से फिर से सुर्खियों में आ गयी हैं। कठपुतलियों का निर्माण प्रतापगढ़ में एक कायस्थ परिवार द्वारा किया गया था। गुलाबो-सीताबो नाम से प्रसिद्ध इन कठपुतलियों का निर्माण ‘60 के दशक में राम निरंजन लाल श्रीवास्तव ने किया था जो प्रतापगढ़ के नरहरपुर गाँव से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने सामाजिक बुराइयों पर केंद्रित छोटी कविताएँ भी लिखीं जो गुलाबो-सीताबो शो (Show) का एक हिस्सा थीं। उनके बाद, उनके भतीजे अलख नारायण श्रीवास्तव ने कठपुतलियों की इस परंपरा को आगे बढ़ाया तथा अन्य लोगों को भी इस कला का प्रशिक्षण दिया। उस दौर में गुलाबो-सीताबो लोकगीतों का एक अभिन्न हिस्सा बन गए थे। यह उम्मीद की जा रही है कि अमिताभ बच्चन अभिनीत यह फिल्म इन पात्रों को फिर से जीवित करेगी। गुलाबो-सीताबो अपनी लोकप्रियता के चरम पर परिवार के विवादों को सुलझाने और शिक्षा और स्वच्छता के महत्व को समझाने का एक अच्छा उपाय बन गयी थीं।
सरकार को इस तरह के कला रूपों को संरक्षण देने और लोगों को इसे सीखने के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि इनका अस्तित्व बना रहे।
संदर्भ:
1.https://bit.ly/2HxnQzW
2.https://bit.ly/2NEv0pO
3.https://bit.ly/2MK64NS
4.https://bit.ly/2v1ROoi
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