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रज़ा पुस्तकालय रामपुर की वास्तुकला का महत्वपूर्ण उदाहरण है। हामिद मंज़िल के नाम से जाना जाने वाला यह पुस्तकालय विभिन्न पांडुलिपियों, ऐतिहासिक दस्तावेजों, इस्लामी सुलेख के नमूनों, लघु चित्रों, मुद्रित पुस्तकों और खगोलीय उपकरणों के दुर्लभ और मूल्यवान संग्रहों के लिये पूरे विश्व में बहुत अधिक प्रसिद्ध हैं। यहां संग्रहित खगोलीय उपकरणों में सबसे पुराना उपकरण तारेक्ष (Astrolabe -एस्ट्रोलोब) है जिसे सिराज दमश्की द्वारा बनाया गया था।
इसके अतिरिक्त दो अन्य कूफिक तारेक्ष दमिश्क के अल-सिराज द्वारा बनाये गये थे जिनको अपने मौजूदा तीन तारेक्षों के लिये जाना जाता है। अल-सिराज द्वारा बनाये गये तीन तारेक्षों में से दो तारेक्ष (Y001 और Y002) अब भारतीय संग्रहालय में मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त तीन अन्य कूफिक तारेक्ष भी भारतीय संग्रहालय में मौजूद हैं। इनमें से एक कूफिक तारेक्ष (706/1306) पटना में खुदा बख्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी (Khuda Bakhsh Oriental Public Library) में है जिसे महमूद-इब्न-शौकत अल-बगदादी द्वारा बनाया गया था। दूसरा कूफिक तारेक्ष (790/1388) भारतीय संग्रहालय कोलकाता में है जिसे किरमान के जाफर-इब्न-उमर द्वारा बनाया गया तथा तीसरा कूफिक तारेक्ष (Y005) दिल्ली स्थित लाल किले के पुरातत्व संग्रहालय में है जिस पर कोई भी तारीख या हस्ताक्षर अंकित नहीं है, लेकिन माना जाता है कि इसे जी. आर. काय (G.R Kaye) द्वारा 1270 में बनाया गया था। इन कूफिक तारेक्षों में डिग्री पैमानों को 1° में क्रमित किया गया है तथा एक विशेष तरीके से 5s में संख्यांकित किया गया है। इन तारेक्षों को दिल्ली सुल्तान के दरबार में विस्थापित हुए विद्वानों द्वारा 13वीं और 14वीं शताब्दी में भारत लाया गया था। ये तारेक्ष तथा इनके जैसे अन्य तारेक्ष जिन पर प्रारम्भिक संस्कृत तारेक्षों के डिज़ाइनों (Designs) का एक निश्चित प्रभाव था, अब भारत में मौजूद नहीं हैं।
तारेक्ष की उत्पत्ति लगभग 200 ईसा पूर्व प्राचीन ग्रीस में हुई थी जिसे पूरे मध्य पूर्व में कई सभ्यताओं द्वारा अपनाया गया था जिसे सटीक खगोलीय माप उपकरण के रूप में जाना जाता है। इसकी सहायता से दिन के समय, ग्रहों की स्थिति, कुंडली आदि का पता लगाया जा सकता है। पृथ्वी के संबंध में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति का पूर्वानुमान लगाने के लिए भी इस उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है। सितारों की दिशा को खोजने में भी ये उपकरण बहुत सहायक हैं। यूरोपीय और इस्लामी संस्कृतियों द्वारा इस उपकरण का उपयोग सदियों तक किया गया जोकि 18वीं शताब्दी तक लोकप्रिय बना रहा। तारेक्ष की सटीकता और बहुमुखी प्रतिभा के कारण 11वीं शताब्दी तक इसकी लोकप्रियता यूरोप के कई देशों में फैल गयी थी। प्राचीन इस्लामिक दुनिया में इसका उपयोग प्रार्थना के समय को बताने और मक्का की दिशा ज्ञात करने में किया जाता था।
प्रारम्भिक तारेक्ष का आविष्कार हेलेनिस्टिक (Hellenistic) सभ्यता में परगा के यूनानी ज्योतिषी ऐपोलोनियस द्वारा 220 और 150 ई.पू. के बीच किया गया था। जिसके बाद अरब के ज्योतिषियों द्वारा इसमें बहुत अधिक सुधार किए गये। समुद्र यात्रियों के बीच यह उपकरण बहुत अधिक प्रचलित था क्योंकि इसकी सहायता से वे समुद्र में दिशा ज्ञात करते थे। यह प्राय: धातु की बनी हुई एक गोल तश्तरी के आकार का उपकरण है, जिस पर टाँगने के लिए ऊपर की ओर से एक छल्ला लगा रहता है। इसका एक पृष्ठ समतल होता है। पृष्ठ के छोर पर 360 डिग्री अंकित रहते हैं तथा केंद्र में लक्ष्य वेध के उपकरण से युक्त़ चारों ओर घूम सकने वाली एक पटरी लगी रहती है। यह भाग ग्रह नक्षत्रों के उन्ऩतांश नापने के प्रयोग में आता है। इसके दूसरी ओर के पृष्ठ के किनारे उभरे रहते हैं तथा बीच में खोखला भाग होता है। इस खोखले भाग में मुख्य तारामंडलों तथा राशिचक्र के तारामंडलों की नक्काशी की हुई धातु की तश्तरी बिठाने के लिये स्थान बना होता है। इसे चारों ओर घुमाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त़ इस खोखले भाग में उन्ऩतांशसूचक तथा समयसूचक आदि तश्तरियां एक-दूसरे के भीतर बिठाई जा सकती हैं। उपकरण का यह पृष्ठ गणना के कार्य के लिए प्रयुक्त़ होता है।
तारेक्ष के आविष्कार से गणित के नए तरीकों की खोज हुई और खगोल विज्ञान का शुरुआती विकास हुआ। इस उपकरण के माध्यम से मौसम-विज्ञान सम्बंधी पूर्वानुमान भी लगाये जाते थे किंतु 17वीं और 18वीं शताब्दी तक इसकी लोकप्रियता बहुत कम होने लगी।
संदर्भ:
1.https://www.smithsonianmag.com/innovation/astrolabe-original-smartphone-180961981/
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Astrolabe