जिस प्रकार महाभारत में अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था, उसी प्रकार श्री द्वारकापुरी में भगवान श्री कृष्ण ने उद्धव जी को भी उपदेश प्रदान किया। उक्त उपदेश में कर्म, भक्ति, योग आदि अनेक विषयों की भगवान ने बड़ी ही विषद व्याख्या की है। अंत में योग का उपदेश हो जाने के बाद उद्धव ने भगवान से कहा कि प्रभु, मेरी समझ से आपकी यह योगचर्या साधारण लोगों के लिए दु:साध्य है, अतेव आप कृपापूर्वक कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे लोग सहज ही सफल हो सकें। तब भगवान ने उद्धव को भागवत धर्म बतलाया और उसकी प्रशंसा में कहा कि – ‘अब मै तुम्हें मंगलमय धर्म बतलाता हूँ, जिसका श्रद्धापूर्वक आचरण करने से मनुष्य दुर्जय मृत्यु को भी जीत सकता है। यानी वह जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए छूटकर भगवान को पा जाता है। इसीलिए इसका नाम मृत्युंजय योग है।‘
भगवान ने कहा- ‘मन के द्वारा निरंतर मेरा विचार और चित्त के द्वारा निरंतर मेरा चिंतन करने से आत्मा और मन मेरे ही धर्म में अनुराग हो जाते हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि शनै:-शनैः मेरा स्मरण करता हुआ सभी कर्मों को मेरे लिए ही करे। जहाँ मेरे भक्त साधुजन रहते हो उन पवित्र स्थानों में रहे और देवता, असुर तथा मनुष्यों में से जो मेरे अनन्य भक्त हो चुके हैं, उनके आचरणों का अनुकरण करे। अलग या सबके साथ मिलकर प्रचलित पर्व, यात्रा आदि में महोत्सव करे। निर्मल चित्त होकर सब प्राणियों में और अपने आप में बाहर-भीतर सब जगह आकाश के समान सर्वत्र मुझे व्याप्त देखे। इस प्रकार ज्ञानदृष्टि से जो सब प्राणीयों को मेरा ही रूप मानकर सबका सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और भक्त, सूर्य और चिंगारी, दयालू और क्रूर, सब में समान दृष्टि रखता है, वही मेरे मन से मेरा साधक है।
और भगवान ने कहा कि –‘ हे, उद्धव एक बार निश्चयपूर्वक आरम्भ करने के बाद फिर मेरा यह निष्काम धर्म किसी प्रकार की विघ्न बाधाओं से अणुमात्र भी ध्वंस नही होता। क्यूंकि निर्गुण होने के कारण मैंने ही इसको पूर्णरूप से निश्चित किया है। हे, संत! भय, शोक आदि कारणों से भागने-चिल्लाने के व्यर्थ प्रयासों को भी यदि निष्काम बुद्धि से मुझे अर्पण कर दें तो वो भी परमधर्म हो जाता है। इस असत और विनाशी मनुष्य के शरीर के द्वारा इसी जन्म में मुझ सत्य और अमर परमात्मा को प्राप्त कर लेने में ही बुद्धिमानों की बुद्धिमानी और चतुरों की चतुराई है।
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनिषा च मनीषिणाम ।
यत्सत्यमन्रत्नेह मत्येरनान्पोती मामृतम ।।
अतेव जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए कोई यत्न न करके केवल विषय भोगों में ही लगे हुए हैं, वे श्री भगवान के मत में ना तो बुद्धिमान हैं और ना ही मनीषी हैं।
सन्दर्भ:-
1. जालन, घनश्यामदास 1882 कल्याण योगांक गोरखपुर,यु.पी.,भारत गीता प्रेस
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