15 वीं शताब्दी तक ठुमरी का कोई ऐतिहासिक उल्लेख नहीं मिलता है। ठुमरी का उल्लेख 19 वीं शताब्दी से देखने को मिलता है, जो कथक (उत्तर प्रदेश का नृत्य) से संबंधित था। लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह को ठुमरी का जन्मदाता माना जाता है तथा इनके शासनकाल के दौरान लखनऊ में ठुमरी काफी प्रसिद्ध हुई। वाजिद अली लखनवी ठुमरी के अत्यंत करीब थे, उस समय यह तवायफों या दरबारियों द्वारा गाया जाने वाला गीत था। वाजिद अली संगीत प्रिय नवाब थे, अंग्रेजों के आगमन के बाद इन्हें लखनऊ छोड़़ना पड़ा तथा यह कलकत्ता जाकर बस गये, इन्हीं के द्वारा ठुमरी को कलकत्ता ले जाया गया। इनके मटियाबुर्ज के दरबार (कलकत्ता) में लखनवी ठुमरी को संरक्षण दिया गया।
इसके अलावा कुछ अन्य स्थानों पर भी ठुमरी का उल्लेख मिलता है जिसमें इसको अरगा नाम से बोला गया है। परन्तु यह कहना ज्यादा सटीक लगता है कि इस गायन को सही शह व नाम लखनऊ में ही मिला। गायन की चंचल प्रकृति का रूप लिए दुमरी रागों की शुद्धता की अपेक्षा भाव एवं सौंदर्य प्रधान होती है। इसमें गीत के शब्द कम होते हैं। शब्दों के भावों को विभिन्न प्रकार से प्रस्तुत किया जाता है। दुमरी में विभिन्न स्वर-समूहों- कण, खटका, मींड, मुर्की आदि का प्रयोग होता है। गायन की इस शैली में श्रृंगार रस की प्रधानता होती है। चंचल प्रकृति की गायन शैली राग भैरवी, ख्माज, देस, तिलंग, काफी, पीलू आदि रागों में गायी जाती है।
यह शब्द (ठुमरी) हिंदी के 'ठुमकना' से लिया गया है। इस गायन शैली के गीत में एक केंद्रीय भूमिका होती है, जो अक्सर लोक कथाओं पर आधारित होती है, और आमतौर पर प्रेमियों, या भगवान कृष्ण के मिथकों के अलगाव को दर्शाती है।
नीना बर्मी ने कई गीतों को ख्याल, ठुमरी, भजन, और अन्य रूपों में किराना घराना शैली में गाया है। नीना वर्तमान में यूके में रहती हैं, नीना ने दिलशाद खान और परवीन सुल्ताना की सम्मानित जोड़ी के तहत प्रशिक्षण लिया है।
इस रविवार प्रारंग लेकर आया है, नीना बर्मी के द्वारा गाया गया एक शास्त्रीय गीत। इस गीत में वह शीर्ष संगीतकार हैं, और भगवान कृष्ण से अलग हुयी प्रेमिका के तनाव और दुःख का वर्णन करने वाला गीत प्रस्तुत कर रही हैं।
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क) भारतीय शास्त्रीय संगीत गायन की प्रसिद्ध शैली ठुमरीसन्दर्भ:-
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