वर्तमान में भारत और अन्य देशों में महिलाएं विभिन्न प्रकार के आभूषणों और वस्त्रों का उपयोग कर रही हैं जिनको विभिन्न तकनीकों से निर्मित किया गया है। कुछ तकनीकें आधुनिक हैं तो वहीं कुछ पारंपरिक। बीटलविंग (Beetlewing) भी इन्हीं तकनीकों में से एक है।
बीटलविंग कला वास्तव में एक प्राचीन शिल्प तकनीक है जिसका प्रयोग कपड़ों और आभूषणों को सजावटी रूप देने के लिये काफी वर्षों पहले से किया जा रहा है। इस तकनीक में सजावटी रूप देने के लिये भृंगो (Beetle) के पंखो का उपयोग किया जाता है। यह शैली कोई नवीन नहीं बल्कि प्राचीन है और कई शाही घरानों द्वारा उपयोग भी की गयी है। इस प्राचीन शैली का उपयोग थाईलैंड, म्यांमार, चीन और जापान आदि देशों में काफी समय से ही किया जाता आ रहा है। दक्षिण भारत में यह आज भी विशेष रूप से लोकप्रिय है किंतु कुछ स्थानों जो कि हस्तकला और कढ़ाई के लिये जाने जाते हैं, जैसे कि रामपुर और बरेली में इसकी लोकप्रियता नहीं है। भारत में 19वीं शताब्दी के दौरान भृंग पंखों के टुकड़ों का उपयोग करके कशीदाकारी वस्त्रों की उत्कृष्ट कृतियों का उत्पादन किया गया था। भृंगों का जीवन काल बहुत कम (लगभग 3 से 4 सप्ताह) होता है और इसलिए इस तकनीक को अपनाने हेतु केवल उन ही भृंगों को एकत्रित किया जाता है जिनकी मृत्यु प्राकृतिक कारणों से होती है।
इनके पंखों का रंग हरा, तांबे जैसा, सोने के समान पीला और गहरा नीला होता है। जैसे ही पंखों पर प्रकाश पड़ता है तो सभी रंगों की विभिन्न परतें प्रदर्शित होने लगती हैं और यह इंद्रधनुष के समान चमकने लगता है। इनकी आकृति मज़बूत नाखूनों के समान होती है जिनका भार बहुत हल्का होता है। पर यदि इन पर अधिक ज़ोर दिया जाए तो ये चटक कर टूट जाते हैं।
इंद्रधनुषी भृंग पंखों का उपयोग चित्रों, वस्त्रों और गहनों को सजाने के लिये एशिया की प्राचीन संस्कृतियों में महत्वपूर्ण रूप से किया गया। इस तकनीक को अपनाने के लिये मेटालिक वुड-बोरिंग बीटल्स (Metallic wood-boring beetle) की विभिन्न प्रजातियों के पंखों का उपयोग किया गया लेकिन परंपरागत रूप से इन प्रजातियों में सबसे महत्वपूर्ण प्रजाति स्टर्नोसेरा (Sternocera) वंश की है। ये प्रजाति अपने पंखों की प्राकृतिक चमक को बनाये रखती है। थाईलैंड में भी स्टर्नोसेरा एक्विसिग्नाटा (Sternocera aequisignata) का उपयोग शाही घरानों के कपड़ों और गहनों को सजाने के लिए किया जाता था। जापान में पारंपरिक रूप से सजावटी काम में इस्तेमाल होने वाली भृंगों की प्रजाति क्राईसोक्रोआ फुलगिडिस्सीमा (Chrysochroa fulgidissima) है, जिसे वहाँ तामामुशी (Tamamushi) कहा जाता है। बैंकॉक में, इस तकनीक के साथ बनाए गए शिल्पों और गहनों के दुर्लभ टुकड़ों को राजा चुलालोंगकॉर्न (King Chulalongkorn) के दुसित पैलेस (Dusit Palace) परिसर, जो अब एक संग्रहालय बन चुका है, में प्रदर्शित किया गया है। आधुनिक बीटलविंग कार्य सरल वस्तुओं जैसे बालियों और कोलाज (Collage) पर किया जा रहा है जिनका विपणन पर्यटक केंद्रित दुकानों के माध्यम से किया जा रहा है। आभूषणों में इनका उपयोग करने के लिए पंखों को पांच मिनट के लिए भांप दी जाती है ताकि वे नरम हो जाएं और फिर एक तेज़ सुई की मदद से इनके सिरों और पक्षों में छेद किया जाता है। पंखों को विभिन्न आकार में काटा या छांटा भी जा सकता है और इन पर सिलाई भी की जा सकती है। भृंगों के ये पंख आज ऑनलाइन (Online) भी उपलब्ध हैं।
इसके अतिरिक्त इस तकनीक के लिये इरीडीसेंट इलीट्रा (Iridescent elytra) जोकि क्राइसोमलीडिया (Chrysomeloidea) और स्काराबीडिया (Scaraboidea) परिवार से संबंधित हैं, का उपयोग भी किया जाता है। आभूषण भृंग शारीरिक रूप से अन्य भृंगों से भिन्न होते हैं क्योंकि इनकी त्वचा चिटिन (Chitin) से बनी होती है। इन पर चिटिन अणुओं की कई परतें होती हैं जो कि चमकदार रंग प्रदर्शित करती हैं। इसका इंद्रधनुषी रंग चिटिन की परतों की संरचना के कारण ही उत्पन्न होता है न कि किसी वर्णक के कारण। इस तकनीक के प्रारूप को आप निम्न वीडियो में देख सकते हैं:
राजस्थान में आज भी इनका उपयोग पोम-पोम्स (Pom-poms) और बालों के आभूषण बनाने में किया जाता है। भृंग परिवार की 15,000 से भी अधिक प्रजातियां भारत में पायी जाती हैं, जिनका उपयोग बीटलविंग तकनीक में बहुत महत्वपूर्ण है।
संदर्भ:
1.https://bangaloremirror.indiatimes.com/opinion/others/urban-jungle-a-shine-like-no-other/articleshow/64005313.cms
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Beetlewing
3.https://www.needlenthread.com/2007/10/beetle-wings-for-embroidery.html
4.https://frontline.thehindu.com/environment/wild-life/the-beetles-story/article9583232.ece
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