आज भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व योग के प्रति जागरूक हो रहा है तथा बड़ी मात्रा में लोग इसे अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बना रहे हैं। योग मुख्यतः भारतीय संस्कृति का हिस्सा है, जहां से यह विश्व स्तर पर फैला। वर्ष 2015 में भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के सुझाव पर 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में घोषित किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य विश्व को योग से मिलने वाले लाभों के प्रति जागरूक करना था। योग को भारतीय महाकाव्य जैसे रामायण, महाभारत, गीता इत्यादि में भी विशेष स्थान दिया गया है। तुलसीदास की प्रसिद्ध रचना ‘रामचरितमानस’ में योग को ईश्वर की प्राप्ति का माध्यम बताया गया है।
मानव का इस संसार में आने का प्रमुख उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है, किंतु वह इस नश्वर शरीर की अनर्थक चित्त वृत्तियों को तृप्त करने में इतना मग्न हो जाता है कि अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को ही भूल जाता है। मानव के भीतर अहं का भाव जितना अधिक बढ़ता जाता है, वह परमात्मा रूपी प्रेम से उतना ही दूर होता चला जाता है। भौतिक जगत का माया जाल उसे इतनी तीव्रता से जकड़ लेता है कि वह ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़े करने लगता है। तुलसी कहते हैं ‘माया ईश न आपु कहे जान कहिए सो जीव’ अर्थात जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। क्योंकि ईश्वर ही माया से अलग भी है और उसका स्वामी भी है।
किंतु मानव अहंकार में इतना मग्न हो गया है कि वह स्वयं से ऊपर किसी को समझ ही नहीं रहा है। यदि वह अपना कल्याण चाहता है तो उसे अहं के भाव को त्यागकर ईश्वर की शरण में जाना होगा तभी उसका कल्याण संभव है। और यही भक्ति योग में बताया गया है। ईश्वर तक पहुंचने का सबसे सरल मार्ग भक्तियोग को ही बताया गया है, जिसके माध्यम से संसार का कोई भी प्राणी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।
मानव नवधा साधनों (1) श्रवण, (2) कीर्तन, (3) स्मरण, (4) पादसेवन, (5) अर्चन, (6) वन्दन, (7) दास्य, (8) सख्य और (9) आत्मनिवेदन के माध्यम से भक्तियोग को प्राप्त कर सकता है। जिसका अनुसरण गृहस्थ और ब्रह्म दोनों ही कर सकते हैं। तुलसी दास ने भक्ति योग को इस दोहे में अभिव्यक्त किया है:
जिसका सन्तों के चरणकमलों में अत्यंत प्रेम हो; मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ़ हो। मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे प्राणी! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ।
भक्तियोग एक ऐसा माध्यम है, जो मोह के बंधन से मुक्त ईश्वर को भी भक्त के मोह जाल में फंसा देता है तथा वह सदैव भक्त के हृदय में निवास करने लगता है। किंतु गीता में कहा गया है जिनका मन वश में नहीं है, उनके लिए योग प्राप्त करना असंभव है। जिससे परमात्मा की प्राप्ति भी असंभव हो जाती है। इस सांसारिक दुख से मुक्ति पाने और ईश्वर को प्राप्त करने के लिए मन को वश में करना अत्यंत आवश्यक है तथा सभी साधन इसी को वश में करने के लिए किए जाते हैं। इसे नियंत्रित करना कठिन है पर असंभव नहीं। अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है, तथा ईश्वर की प्राप्ति संभव हो जाती है।
इस संपूर्ण भक्तियोग का वर्णन श्री जयराम दासजी ‘दीन’ ने अपने लेख ‘श्रीरामचरित मानस में भक्तियोग’ में किया है, जो कल्याण पत्रिका, गीता प्रेस के ‘1940 योग विशेषांक’ के अन्दर छापा गया है क्लिक करें।
संदर्भ:
1. http://www.kalyan-gitapress.org/pdf_full_issues/yog_ank_1935.pdf© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.