चीनी संस्कृति में भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है, जिसे दो सहस्त्राब्दी पूर्व भारत से चीन ले जाया गया। भारतीय संस्कृति को सर्वप्रथम चीन ले जाने का श्रेय बौद्ध धर्म प्रचारकों को जाता है, जिन्होंने 65 ईस्वी की शुरुआत में चीन की यात्रा करना प्रारंभ किया। चीन जाने वाले पहले बौद्ध धर्म प्रचारक कश्यप माटंगा थे, जिन्होंने कई बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। इनके सम्मान में विगत कुछ वर्ष पूर्व भारत ने चीन के लुओयांग, हेनान प्रांत में श्वेत अश्व मंदिर परिसर के अंदर एक बौद्ध मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर का उद्घाटन मई 2010 में भारत की तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपनी चीन यात्रा के दौरान किया था।
चीन तक बौद्ध धर्म को पहुंचाने में रेशम मार्ग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस मार्ग का प्रयोग मात्र व्यापार के लिए ही नहीं, बल्कि बुद्ध के विचारों को मध्य एशिया तक फैलाने के लिए भी किया गया। वेई (Wei) साम्राज्य (386-354) के दौरान बौद्ध धर्म चीन का राजधर्म बन गया तथा इसके कई शासकों ने व्यापक रूप से बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। चीन के उत्तर पश्चिम में स्थित तारिम बेसिन जिसे खानाबदोशों द्वारा बसाया गया था, बौद्ध धर्म का केंद्र बना। दूसरी शताब्दी में युद्ध के बाद यह खानाबदोश दो भागों में विभाजित हो गए, इन्होंने यहां ब्रह्मी लिपि को स्थापित किया। इस लिपि ने रेशम मार्ग के माध्यम से पूर्वी एशिया में बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फाह्यान, ह्वेनसांग, इत्सिंग जैसे चीनी यात्रियों ने भारत की यात्रा की तथा बौद्ध धर्म को बड़ी गहनता से समझा और कई बौद्ध ग्रन्थों का अनुवाद कर चीन ले गए, जिसने भारत और चीन के बीच संस्कृति एवं धार्मिक संबंधों को बढ़ाने में विशेष भूमिका निभाई। फरवरी 2007 में नालंदा में ह्वेनसांग स्मारक का उद्घाटन किया गया। मौर्य वंश के अभिन्न अंग चाणक्य ने अपनी कृति में रेशम मार्ग का उल्लेख किया है। मौर्य वंश के सबसे प्रसिद्ध सम्राट अशोक और उनके उत्तराधिकारियों ने व्यापक रूप से बौद्ध धर्म का विस्तार किया।
छठी शताब्दी में चीन में बौद्ध धर्म के विस्तार के साथ इन्होंने बौद्ध कला में भारत-फारसी शैली के साथ चीनी शैली को मिलाना भी प्रारंभ कर दिया। 7वीं शताब्दी तक तारिम बेसिन में विभिन्न बौद्ध केंद्र स्थापित कर दिए गए, जिससे धर्म प्रचारकों का कार्य आसान हो गया। यहां क्षेत्रानुसार हीनयान और महायान दोनों बौद्ध धर्मों का भिन्न-भिन्न स्थान था। चीनी साक्ष्यों के अनुसार दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक बौद्ध धर्म शियोंगनु (Xiongnu) तक पहुंच गया था, क्योंकि यहां से उस दौरान की मूर्तियों के साक्ष्य प्राप्त हुए थे।
दसवीं शताब्दी में तुरफ़ान के निकट स्थित कोअचांग (Koachang), बौद्ध धर्म का एक समृद्ध केन्द्र बना, जहां लगभग 50 बौद्ध मठ थे। 1600 के दशक के अंत तक तुरफ़ान तुर्की बौद्ध धर्म का केंद्र बिंदु बना रहा। 1900 की शुरुआत में, तुरफ़ान, हामी और दुनहुआंग में तुर्की बौद्ध साहित्य के अद्भुत संग्रह पाए गए।
इतिहास में चीन के साथ तमिलनाडु के व्यापारिक संबंध भी रहे थे जिसके प्रत्यक्ष साक्ष्य तमिलनाडु के तंजावुर, तिरुवरुर और पुदुक्कोट्टई जिलों में मिले चीनी साम्राज्यों के सिक्के हैं। बौद्ध ग्रन्थों में पल्लव वंश का उल्लेख किया गया है। भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट की साइन तालिका (Table of Sines) का कायुआन युग में चीनी खगोलीय और गणितीय ग्रंथ में अनुवाद किया गया था।
भारत और चीन अपने ऐतिहासिक संबंधों को जीवित रखने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। जून 2008 में संयुक्त डाक टिकट जारी किए गए, जिसमें बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर और लुओयांग के श्वेत अश्व मंदिर का चित्रण है। शैक्षिक आदान-प्रदान के लिए 2003 में पेकिंग विश्वविद्यालय में एक भारतीय अध्ययन केन्द्र स्थापित किया गया था। चीन में योग तेज़ी से लोकप्रिय होता जा रहा है, जो प्रमुखतः भारतीय मूल का है। 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में नामित करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के सह-प्रायोजकों में से चीन भी एक था।
संदर्भ:
1. https://www.esamskriti.com/e/History/Indian-Influence-Abroad/China-Korea-Japan-1.aspx
2. https://www.quora.com/How-was-the-relation-between-Ancient-India-and-China-before-1600AD
3. https://www.eoibeijing.gov.in/cultural-relation.php
4. http://www.silk-road.com/artl/buddhism.shtml
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