रेशम मार्ग या सिल्क रूट (Silk Route) प्राचीनकाल और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक-सांस्कृतिक मार्गों का एक समूह रहा है जिसके माध्यम से एशिया, यूरोप और अफ्रीका महाद्वीप जुड़े हुए थे। चीन के रेशम व्यापार के कारण इसका नाम रेशम मार्ग पड़ा। चीन, भारत, मिस्र, ईरान, अरब और प्राचीन रोम की महान सभ्यताओं के विकास पर इस मार्ग का गहरा प्रभाव है। जहां ये मार्ग व्यापार के लिये प्रयोग किया गया वहीं भारत के धर्म, संस्कृति, भाषा, विचारधारा और ज्ञान को एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रसारित करने हेतु इस मार्ग ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदू धर्म की विभिन्न संस्कृत पांडुलिपियों का एशियाई देशों में प्रसार भिक्षुओं और तीर्थयात्रियों ने इसी मार्ग के माध्यम से किया। इस मार्ग के मठों और गुफाओं में संस्कृत पांडुलिपियों को संरक्षित किया गया था जो भारत सहित अन्य एशियाई देशों की भी विरासत बनीं। इन संस्कृत पांडुलिपियों से बौद्ध धर्म के बारे में जानकारी प्राप्त हुई।
इस मार्ग ने चीन को भूमध्य सागर से जोड़ा तथा फारसी, इंडिक और चीनी सहित अन्य महान सभ्यताओं का पता भी लगाया। रेशम मार्ग में हिंदू धर्म के गायत्री मंत्र को पाया गया जो चार एशियाई लिपियों (मंचूरियन, चीनी, मंगोलियाई और तिब्बती) में मौजूद है। चीनीयों का विश्वास था कि ये मंत्र राजनीतिक सशक्तिकरण, सत्ता के एकीकरण और लोगों की भलाई के लिए इस्तेमाल किये जा सकते हैं। नृत्य, नाटक, संगीत, धातु विज्ञान, रसायन विज्ञान और भाषा विज्ञान से संबंधित हिंदू धर्म ग्रंथों का भी एशियाई देशों में प्रसार रेशम मार्ग की ही देन है। बौद्ध ग्रंथों में लिखी संस्कृत को समझने के लिये तिब्बती भाषा को संस्कृत के मुहावरों से विकसित किया गया ताकि संस्कृत शब्दों को आसानी से तिब्बती भाषा में अनुवादित किया जा सके। इस प्रकार एशियाई देशों में प्राचीन बौद्ध धर्म का विस्तार भी इसी मार्ग के द्वारा सम्भव हो पाया।
प्राचीन काल में रेशम मार्ग पर स्थित दो प्राचीन शहरों मर्व (तुर्कमेनिस्तान) और निशापुर (ईरान) में भी भारतीय धर्म का विस्तार हुआ। मध्य एशिया के मुख्य नखलिस्तान-शहर मर्व को फ़ारसी ग्रंथों में ‘मोरू’ लिखा गया है। मोरू असल में संस्कृत शब्द ‘मेरु’ का ही विरूपण है। प्राचीन शहर निशापुर की स्थापना तीसरी शताब्दी ईसवी में राजा अर्दशिर के पुत्र शापुर ने की थी। अर्दशिर संस्कृत के 'अर्धासि' से लिया गया है जिसका अर्थ है 'खंजर'। शापुर के पिता का विवाह 'राम विहस्त' नाम की एक महिला से हुआ था। राम विहस्त (राम के विचार में पूरी तरह लीन) भी संस्कृत भाषा का ही शब्द है। निशापुर 1221 ईसवी तक फला-फूला किंतु उसके बाद चंगेज़ खान की शातिर बेटी ने अपने पति के निशापुर में मारे जाने के बाद शहर को नष्ट करने का आदेश दिया। निशापुर के नरसंहार को दुनिया के इतिहास में सबसे खूनी युद्ध-अपराधों में से एक माना जाता है। सम्भवत: इस हत्याकांड के बाद ही इस शहर को निशापुर कहा गया। निशापुर भी संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है अंधकारमय शहर।
मध्य एशिया के तकलामकान रेगिस्तान के उत्तरी छोर पर स्थित प्राचीन राज्य कूचा में भी हिंदू बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। रेशम मार्ग की एक शाखा पर स्थित इस शहर में बौद्ध धर्म के अनुयायी निवास करते थे। कूचा सहित अन्य क्षेत्रों जैसे कुज़िल, कुमटुरा और सिम्सिम में भी बौद्ध धर्म के विस्तार के लिये रेशम मार्ग बहुत सहायक सिद्ध हुआ। ये स्थान मुख्य रूप से बौद्ध मठवासी संस्कृति से प्रभावित थे। कूचा क्षेत्र में धार्मिक ग्रंथों की भाषा संस्कृत थी। रेशम मार्ग में मानव निर्मित 300 गुफाएं थी जिन्हें मठ परिसर के रूप में इस्तेमाल किया गया था। इन परिसरों में संस्कृत पांडुलिपियां भी पायी गईं। गुफा-मंदिरों को बौद्ध कथाओं, बौद्ध किंवदंतियों, बुद्ध की छवियों, और बोधिसत्व से सजाया गया था जिन्हें इंडो-इरानी (Indo-Iranian) श्रेणी में रखा गया था। बुद्ध के चित्रण के साथ-साथ हिंदू धर्म के देवताओं के चित्रण भी यहां प्राप्त हुए। जो इस क्षेत्र में हिंदू धर्म के अस्तित्व को व्यक्त करते हैं।
उच्च तिब्बती पठार से गंगा और श्रावस्ती तक, पश्चिमी नेपाल की घाटियों और पहाड़ों से गंगा की उपजाऊ घाटियों तक, पश्चिमी हिमालय को आवरित करते हुए श्रीनगर, लेह, संगजु(Sangju) दर्रा से होते हुए काराकोरम तक और गंगा, दिल्ली, और पश्चिम बंगाल के चंद्रकेतुगढ़ तक होकर जाने वाले मार्ग भारत को रेशम मार्ग से जोड़ते हैं। भारत का पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र चित्राल से लेकर उत्तराखंड हिमालय तक फैला हुआ है, जिसमें हिंद कुश, पामीर, काराकोरम की महान पर्वत श्रृंखलाएं निहित हैं जिनके पीछे तिब्बत देश स्थित है। ऊपरी सिंधु पर स्थित लद्दाख व्यापार का मुख्य केंद्र है जो यारकंड, पंजाब और कश्मीर से आने वाली कई व्यापारिक सड़कों का सभा स्थल भी है। रेशम मार्ग ने इन सभी भारतीय क्षेत्रों को एशियाई देशों से व्यापार करने में सक्षम बनाया। हिमालय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था तिब्बत, मध्य एशिया और चीन के साथ अपने व्यापार पर निर्भर है जिसमें रेशम मार्ग की भूमिका महत्वपूर्ण है।
प्राचीन समय में खाद्यान्न, कपास, रंगाई सामग्री, बंदूक की थैली, बर्तन, सूखे मेवे, रेशम, केसर, शाल और कला के सामान आदि को इसी मार्ग के माध्यम से हिमालय के दर्रों से होकर मध्य एशिया में ले जाया जाता था। व्यापार के फलस्वरूप भारत के धर्म, कला और लोक उद्योगों को एशियाई देशों में बढ़ावा मिला और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध भी स्थापित हुए। भारत में 2014 में मौसम (MAUSAM) परियोजना शुरू की गई जिसका उद्देश्य हिंद महासागर समुद्री रेशम सड़कों पर तटीय स्थलों की सूची और एक यूनेस्को (UNESCO) वेब प्लेटफॉर्म (Web Platform) बनाना था।
रेशम मार्ग प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक भारत और एशियाई देशों के बीच सांस्कृतिक निरंतरता प्रदान करता रहा है। इस मार्ग को अनुकूल और स्थायी परिस्थितियां उपलब्ध करवाये जाने की आवश्यकता है ताकि यह अपने पूर्व गौरव को आगे भी बनाये रखे।
संदर्भ:
1. https://bharatabharati.wordpress.com/2013/12/27/bhikkhus-took-sanskrit-down-the-silk-road-sonal-srivastava/
2. http://vediccafe.blogspot.com/2013/06/the-sanskrit-connection-silk-route.html
3. https://en.unesco.org/silkroad/countries-alongside-silk-road-routes/india
4. https://bit.ly/2QAsy36
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.