भारतीय गिरमिटिया प्रणाली दासत्व की एक प्रणाली थी जिसमें 19वीं शताब्दी की शुरुआत में 20 लाख भारतीय लोगों को श्रमिकों के रूप में यूरोपीय उपनिवेशों में भेजा गया तथा इन श्रमिकों को गिरमिटिया श्रमिक कहा गया। इसका विस्तार ब्रिटिश साम्राज्य के दासता उन्मूलन अधिनियम 1833 के बाद हुआ जो कि 1920 के दशक तक जारी रहा। इस प्रणाली में गिरमिटिया मजदूरों को ब्रिटिश साम्राज्य के अनुबंध पर हस्ताक्षर करने होते थे जिसके अंतर्गत इन्हें किसी निश्चित समयावधि (5 साल या उससे अधिक) के लिये अन्य देशों में श्रम के लिये भेजा जाता था तथा समयावधि समाप्त होने पर ही देश वापस लौटने की अनुमति होती थी। यह अनुबंध ब्रिटिश साम्राज्य की कुछ शर्तों पर आधारित था और गिरमिट समझौते के नाम से जाना जाता था। वेस्ट इंडीज़, अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया की ब्रिटिश कालोनियों (British Colonies) में चीनी, कपास, चाय बागानों और रेल निर्माण परियोजनाओं पर काम करने के लिए गिरमिटिया श्रमिक नियुक्त किये गए थे जो ’कुलीज़’ (Coolies) के नाम से जाने जाते थे।
18वीं और 19वीं शताब्दी के बीच ब्रिटिश साम्राज्य में दास व्यापार के उन्मूलन के कारण अपनी गरीबी, आवास के अभाव, अकाल की स्थिति और निरक्षरता स्तर को देखते हुए इन श्रमिकों ने अनुबंध पर अपना अंगूठा लगा दिया। इन लोगों को मजदूरी और ज़मीन देने तथा अनुबंध समाप्त होने पर वापस भेजने का वादा किया गया था किन्तु वास्तव में बहुत कम ही ऐसा हुआ। इसके परिणाम स्वरूप भारत के कई लोगों (जिनमें उत्तरप्रदेश और बिहार के निवासियों की संख्या बहुत अधिक थी) को कैरिबियन, नटाल, रियूनियन, मॉरीशस, श्रीलंका, मलेशिया, म्यांमार, फिजी आदि देशों में गिरमिटिया श्रम के लिये भेजा गया।
झूठा दिलासा देकर इन श्रमिकों को दूर देश ले जाया जाता, किन्तु उनकी मांगे कभी पूरी ही नहीं की जाती। समुद्री जहाजों के माध्यम से प्रस्तावित जगह ले जाने की बजाय कहीं और ले जाया जाता था। 1856-57 में, कैरिबियन यात्रा करने वाले 17% भारतीय श्रमिक पेचिश, हैजा, खसरा और अन्य बीमारियों से मर चुके थे। उपलब्ध रिकॉर्ड के अनुसार 1870 में जमैका में इनकी वार्षिक मृत्यु दर 12% थी और इसके तीस साल बाद मॉरीशस में भी यही आंकड़ा था। 5 साल के बच्चों को भी उनके माता-पिता के साथ काम करने के लिए बाध्य किया जाता। 1894 से 1902 के बीच, कई हजार भारतीय गिरमिटिया श्रमिकों ने केन्या-युगांडा में रेलवे निर्माण का कार्य किया जहां आदमखोर शेरों ने कई मौकों पर इन श्रमिकों पर हमला किया जिससे 7% मजदूर अनुबंध के दौरान ही मारे गए। अपने कठोर जीवन से बचने की कोशिश करने वाले श्रमिकों को कैद कर लिया जाता था।
गिरमिटिया श्रम और दास प्रथा दोनों ही एक दूसरे से भिन्न हैं। दास प्रथा अनैच्छिक श्रम है जो भेद-भाव के कारण अनिवार्य रूप से की जाती थी, जबकि गिरमिटिया श्रम दो पक्षों के बीच एक समझौता थी जिसमें एक पक्ष को अपने व्यक्तिगत लाभ हेतु दूसरे के लिए श्रम करना पड़ता था और इसमें समय भी पहले से ही निर्धारित होता था। यूरोपीय उपनिवेशों में 1830 और 1917 के बीच लगभग 20 लाख प्रवासियों ने दस-वर्षीय शर्तों (बाद में पांच वर्ष से कटौती) पर हस्ताक्षर किए जिसमें से अधिकांश भारत से थे तथा अन्य चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया और अन्य जगहों से थे। निम्न्लिखित तालिका के अनुसार भारत से विभिन्न देशों में गये श्रमिकों की संख्या इस प्रकार है:
इस मजदूरी ने भोजन और आवास की पेशकश की जो उस समय लोगों के लिए अच्छा विकल्प थी किन्तु इस श्रम प्रणाली की छलयुक्त गुणवत्ता और विचारधारा अपने श्रमिकों के लिए बहुत ही कष्टदायी थी जो इसके अंतिम पतन का कारण बनी।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Indian_indenture_system
2. https://bit.ly/2LXpVcT
3. https://bit.ly/2HrXzmE
4. https://econ.st/2YCyA64
5. https://bit.ly/2w7zs6D
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