भारत में मुद्रण तथा प्रकाशन का अपना एक प्रसिद्ध इतिहास है। और इस इतिहास में लखनऊ का ज़िक्र भी बार-बार होता है, जो भारत में पुस्तक प्रकाशन का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध के बाद 1858 में लखनऊ में नवल किशोर प्रेस (Nawal Kishor Press) की शुरुआत हुई, जिसमें प्रिंट (Print) के लिए लिथोग्राफिक (Lithographic) विधि का प्रयोग किया गया, और तब से ही लखनऊ लिथोग्राफिक प्रिंटिंग के लिये जाना जाने लगा। भारत में स्वतंत्रता से पहले उर्दू और फारसी भाषा का बहुत अधिक चलन था तथा प्रकाशित की जाने वाली पुस्तकें, पत्र आदि इन्हीं भाषाओं में हुआ करते थे। लिथोग्राफिक प्रिंटिंग ने उन पेशेवरों के लिए रोजगार की पेशकश की जो पहले से ही पांडुलिपियों के उत्पादन में लगे हुए थे।
लखनऊ में लिथोग्राफिक प्रिंटिंग के अग्रदूत मीर हसन रज़वी के लिथोग्राफिक प्रिंटिंग हाउस ने शीर्षक पृष्ठ के लिए एक खाका तैयार किया, जिसे बाद में मुंशी नवल किशोर के प्रकाशन गृह ने अपनाया और कई दशकों तक इसे मानक प्रारूप भी बनाया। मुंशी नवल किशोर के प्रकाशन ने अपने प्रसिद्ध उर्दू अखबार ‘अवध अख़बार’ के साथ-साथ उर्दू, फारसी और अरबी भाषा में भी कई किताबें छापी। फ़ारसी से उर्दू में अनुवाद करने के लिए 19 वीं सदी के 70 के दशक में अपने प्रकाशन गृह में इन्होंने एक विभाग बनाया, जहाँ मुगल भारत के इतिहास पर कार्य भी किया जाता था। मुंशी नवल किशोर ने हजारों संस्करण छापे। 1874 में उनकी व्यावसायिक सूची में उर्दू, फारसी, अरबी और संस्कृत की करीब 1066 पुस्तकें थी। इस सूची में उर्दू की 544, फारसी की 249, अरबी की 93, अंग्रेजी की 30, और देवनागरी लिपि की 136 पुस्तकें शामिल थीं। लखनऊ का नवल किशोर प्रेस 19 वीं सदी के सबसे सफल प्रकाशकों में से एक है, तथा उनके द्वारा प्रकाशित की गयी पुस्तक ‘एन एम्पायर ऑफ़ बुक्स: द नवल किशोर प्रेस एंड द डिफ्यूज़न ऑफ़ द प्रिंटेड वर्ड इन कॉलोनियल इंडिया’ (An Empire of Books: The Naval Kishor Press and the Diffusion of the Printed Word in Colonial India) में भारत में पुस्तकों के इतिहास को बताया गया है।
1833 में एक अलग प्रेसीडेंसी (Presidency) के साथ पश्चिमी प्रांतों के निर्माण के लिए ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा चार्टर बिल (Charter Bill) की शुरुआत के समय राजस्व प्रशासन में एक बदलाव किया गया और वह था आधिकारिक लेनदेन के लिये फारसी के स्थान पर हिंदी भाषा को अपनाना। यह परिवर्तन पहले मध्य भारत में शुरू हुआ जहां देवनागरी लिपि और हिंदी सार्वभौमिक रूप से उपयोग में थी। इसलिए प्रारंभिक ब्रिटिश प्रशासकों की यह पहल हिंदी भाषा की प्रगति में सराहनीय थी। डॉ. फ्रांसेस बालफोर गिलक्रिस्ट और कर्कपैट्रिक ने 1785 में हिंदी व्याकरण और हिंदी शब्दकोष का संकलन किया जिसका देवनागरी प्रकार 1805 में तैयार हुआ। 1813 में, जॉन शेक्सपियर की किताब ‘ए ग्रामर ऑफ़ द हिंदुस्तानी लैंग्वेज’ (A Grammar of the Hindustani Language) के अलग-अलग प्रकार लंदन में देवनागरी और फ़ारसी भाषा में छापे गये थे जिसका उपयोग निर्देशात्मक पुस्तिका के रूप में अंग्रेज़ों को हिंदी और उर्दू पढ़ाने के लिए किया गया। माना जाता है कि देवनागरी की पहली उपस्थिति को जून 1796 के कलकत्ता गजट में एक आधिकारिक नोटिस के रूप में दर्ज किया गया था।
भारत में मुद्रण और प्रकाशन की शुरुआत ईसाई मिशनरियों ने की जो अपने धर्म के प्रसार के लिये बाइबल (Bible) का अनुवाद देश की कई भाषाओं में करना चाहते थे। भारत में हिंदी और उर्दू से पहले भी कई भाषाओं में पुस्तकें छापी गयी थीं जिनमें बंगाली और तमिल भाषा की पुस्तकें मुख्य थीं, इनके कुछ उदाहरण निम्न्लिखित हैं:
• 1578 में तमिल भाषा में छापी गयी थम्पीरान वणक्कम (Thampiraan vanakkam)
• 1778 में बंगाली भाषा में छापी गयी नथेनीयल ब्रासी हालहेड (Nathaniel Brassey Halhed) की ‘अ ग्रामर ऑफ़ द बंगाल लैंग्वेज’ (A Grammar of the Bengal Language) जो बंगाली भाषा का व्याकरण है।
• 1807 में उड़िया भाषा में छापी गयी मृत्युंजय बिद्यालंकार (Mrtyuñjaya Bidyalankar)।
• 1813 में असमी भाषा में विलियम कैरी (William Carey) द्वारा छापी गयी एक पुस्तक।
• 1813 में तेलुगू भाषा में छापी गयी तेलुगू का व्याकरण (Grammar of Telugu)।
संदर्भ
1. https://bit.ly/2W1SPMK
2. https://mutiny.wordpress.com/2007/04/13/earliest-printed-books-in-indian-languages/
3. http://www.iranicaonline.org/articles/lithography-ii-in-india
4. https://caravanmagazine.in/reviews-essays/apart-text-book-history-india
5. http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/165391/15/15_chapter%2011.pdf
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