लखनऊ अपनी चिकनकारी कढ़ाई के अलावा अपने आभूषणों और मीनाकारी के काम के लिए भी जाना जाता है। खासकर बिदरी और ज़रबुलंद चांदी के काम के माध्यम से बनाए गये बर्तनों पर सांप, शिकार के दृश्य और गुलाब के फूलों की डिज़ाइन (Design) बेहद लोकप्रिय है। यहां का बिदरी और ज़रबुलंद चांदी का काम तो लखनऊ की पहचान बन चुका है। बिदरी और ज़रबुलंद चांदी का काम ज्यादातर आपको हुक़्क़ा फर्शी, गहनों के बक्से, ट्रे (Tray), कटोरे, कफलिंक (Cuff-Links), सिगरेट होल्डर (Cigarette Holders) आदि में देखने को मिलता है। आपको इसकी सबसे अच्छी कलाकृतियों का संग्रह राजकीय संग्रहालय लखनऊ, भारतीय संग्रहालय कलकत्ता, सालार जंग संग्रहालय हैदराबाद और बॉम्बे म्यूजियम हाउस (Bombay Museum House) में देखने को मिलेगा।
उत्पत्ति
वैसे तो भारत में विभिन्न धातुओं तथा धातु शिल्पों की विस्तृत जानकारी प्राचीनकाल से ही उपलब्ध है। परंतु बिदरी कला की उत्पत्ति अस्पष्ट है, यह भी माना जाता है कि बहामनी शासकों के काल में एक फारसी कारीगर सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर आए थे तथा उनके बाद उन्होंने बीदर के धातु शिल्पकारों के साथ मिलकर इस अनूठी कला को जन्म दिया था जिसे इस नगर के ही नाम पर बिदरी अथवा बीदर कला कहा जाता है। बिदरी कला के महत्वपूर्ण केंद्र उत्तर प्रदेश में लखनऊ, बंगाल में मुर्शिदाबाद, बिहार में पुर्निया और महाराष्ट्र हैं।
स्वतंत्रता से पहले बीदर हैदराबाद का अभिन्न अंग था तथा स्वतंत्रता के पश्चात इसे कर्नाटक राज्य में सम्मिलित किया गया। यह बिदरी कला अब भी बीदर के साथ-साथ हैदराबाद में भी जीवित है। धातु को खांचों में किस प्रकार से बिठाया जाता है, इस आधार पर बिदरी कला को कुछ महत्वपूर्ण भागों जैसे आफताबी, तेहनिशां, ज़रबुलंद, तरकशी आदि कलाकारी में बांटा गया है, इनमें से ज़रबुलंद विशेष रूप से लखनऊ से संबंधित हैं और उभरी हुई नक्काशी की कला है।
बिदरी कला हेतु आवश्यक सामग्री और उपकरण
बिदरी कार्य करने के लिए मुख्य सामग्री कुछ इस प्रकार है-
1. बिदरी कार्य हेतु सर्वाधिक आवश्यक वस्तु एक मिश्रित धातु है जिसे जस्ता तथा तांबा को मिलाकर बनाया जाता है। इसमें कॉपर सल्फेट (Copper Sulphate) का उपयोग किया जाता है तथा चांदी व तांबे के तारों का उपयोग जड़ने के लिए किया जाता है।
2. बिदरी कलाकार काम करने के लिए सरल और हस्तनिर्मित उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं। डिज़ाइन को उकेरने तथा सतह को सपाट करने के लिए छेनी तथा घिसाई के औजार का उपयोग किया जाता है। इनके अलावा खुरचनी, कैंची, आरी, हथौड़ा आदि औजारों का भी उपयोग किया जाता है।
3. ब्रश का उपयोग पॉलिशिंग करने के लिए किया जाता है तथा काले मैट (Matte) कोटिंग को गहरा करने के लिए मूंगफली का तेल और कोयला लगाया जाता है।
बिदरी कला की प्रक्रिया
यह प्रक्रिया निम्न चार चरणों में पूरी होती है:
1. प्रथम चरण में शिल्पकार लाल और महीन मिट्टी से कलाकृतियों के सांचों का निर्माण करता है। और इस सांचे में जस्ते तथा तांबे के 16:1 के अनुपात का विलयन डाला जाता है, जिससे कि एक धातु का बर्तन तैयार हो जाता है।
2. इसके दूसरे चरण में, धातु की सतह को काला करने के लिए बर्तन को कॉपर सल्फेट के घोल में डुबोया जाता है, इस प्रक्रिया से डिज़ाइन बनाने में मदद मिलती है। इसके बाद एक कलाकार एक कलम से इसकी सतह पर डिज़ाइन बनाता है।
3. तीसरे चरण में, डिज़ाइन को पीतल, चांदी या सोने के तारों से जड़ा जाता है, ज्यादातर कारीगर जड़ने के लिए चांदी की तारों का उपयोग करना पसंद करते हैं। डिज़ाइन के भीतर छेनी द्वारा ये तारें भरी जाती हैं तथा हथौड़े से पीट कर इन तारों को खांचों में दृढ़ता से बिठाया जाता है। तत्पश्चात रेगमार से घिस कर सतह को चिकना करते हैं।
4. चौथे और अंतिम चरण में, चांदी के कार्य को नुकसान पहुंचाए बिना इसे काला करने के लिये सतह पर एक स्थायी काले रंग को चढ़ाया जाता है। बर्तन को काला करने के लिये सॉल्ट अमोनियाक (Salt Ammoniac) युक्त सल्फेट को 30:5 के अनुपात में पानी में मिलाया जाता है और घोल को लोहे के खुले बर्तन में कोयले के चूल्हे पर उबाला जाता है। इसके बाद बर्तन को इसमें डुबोया जाता है और ठंडा होने के बाद अंत में इसे मूंगफली के तेल या पिसे हुए कोयले के पेस्ट (Paste) से पॉलिश किया जाता है।
प्राचीनकाल में कारीगर इसी कला का उपयोग कर तलवार की मूठ, ढाल, पानदान जैसी कई वस्तुएं बनाते थे। आज भी इस कला को हम आभूषण इत्यादि रखने की डिबिया, थाली, कटोरी, चम्मच, कलम रखने का पात्र, कागज़ काटने की कैची, सुराही, आभूषण इत्यादि में देख सकते हैं। बिदरी कला के कलाकारों में यह कला विरासत स्वरूप संबंधित नहीं है। जो भी कारीगर इस कला में रूचि रखता हो, वह इस कला को सीख कर बिदरी कलाकार बन सकता है। किसी भी जाति के लोग, हिंदू या मुस्लिम इस विशेष प्रक्रिया को सीख सकते हैं।
आज बिदरी शिल्प पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। क्योंकि अब वैसी कुशल कारीगरी इस क्षेत्र में नहीं रह गयी है जैसे कि पहले के समय में हुआ करती थी। इसके लिए सरकार भी बिदरी कला के उत्पादन और बिक्री के लिए अपना प्रोत्साहन दे रही है। सहकारी कार्यशालाएं कुटीर उद्योग खोले जा रहे हैं तथा इसके अलावा समूह कार्यक्रम भी सरकारी और गैर सरकारी संगठन द्वारा आयोजित किये जा रहे हैं। इतना ही नहीं कर्नाटक सरकार ने इन कारीगरों के स्वयं सहायता समूह बनाए हैं, जिन्हें सब्सिडी (Subsidy) वाले कच्चे माल और अन्य विशेषाधिकार मिलते हैं।
संदर्भ:
1. रिपोर्ट (Report) – Bidri Ware: A Unique Metal Craft Of India, Dr. Anjali Pandey
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