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रतन नाथ सरशार उर्दू के उन विशिष्ट साहित्यकारों में से एक हैं जिनकी रचनाएँ उत्कृष्ट ग्रंथों की कोटि में आती हैं। उन्होंने 19वीं शताब्दी में उर्दू भाषा में उपन्यास विधा को समृद्ध किया और उससे लखनऊ की मिटती हुई पुरानी संस्कृति का दर्पण बनाया। रतन नाथ सरशार का जन्म लखनऊ में ही सन 1846 में हुआ था। इनके दो अन्य उपन्यास ‘जाम-ए-सरशार’ और ‘सैर-ए-कोहसर’ भी काफी मशहूर हैं जो कि क्रमश: 1887 और 1890 में प्रकाशित हुए थे। रतन नाथ सरशार के बारे में और अधिक आप प्रारंग के इस लिंक पर जा कर भी पड़ सकते हैं।
सरशार कश्मीरी पंडितों के खानदान से थे, जो किसी वक्त ज़रिया-ए-माश की तलाश करते हुए लखनऊ में आ बसे थे। चार वर्ष की उम्र में ही सरशार के पिता का देहांत हो गया था। उनके पिता के देहांत के बाद उनकी परवरिश उनकी मां द्वारा की गई थी। उस समय के तमाम बच्चों की तरह ही सरशार की शिक्षा फ़ारसी और अरबी के साथ शुरू हुई थी। घर के आस-पड़ोसियों के यहां स्वतंत्र आना जाना होने की वजह से उन्हें उनकी भी भाषा या जुबान सीखने का अवसर मिला, जिसकी झलक सरशार के अफ़सानों, ख़ासकर 'फ़साना-ए-आज़ाद' में भी देखने को मिलती है।
उन्होंने कई सारी अंग्रेज़ी किताबों का अनुवाद किया, जिनमें विज्ञान की एक किताब 'शमशुज़्ज़ुहा' भी शामिल है। इन अनुवाद वाली किताबों की सूची में स्पेनिश लेखक सरवांतीज़ (Cervantes) की किताब 'डॉन कीओटे' (Don Quixote) भी शामिल है, जो 'ख़ुदाई फ़ौजदार' के नाम से 1894 में मुंशी नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से छपकर आम जनता के समक्ष आई थी। इनकी रचना ‘फ़सान-ए-आजाद’ सबसे उम्दा लेखों में से एक मानी जाती है तथा यही कारण है कि इनके इस लेख का उर्दू से हिंदी रूपांतरण मुंशी प्रेमचंद्र ने किया था। फ़सान-ए-आजाद में आकर्षक और मजेदार कहानियों का मिश्रण करने के लिए सरशार ने स्पैनिश (Spanish) डॉन क्विगज़ोट से प्रेरणा ली थी।
फिराक़ गोरखपुरी कहते हैं कि ''सरशार उर्दू के पहले यथार्थवादी कलाकार हैं। 'फ़साना-ए-आज़ाद' में उन्होंने लखनऊ का ही सजीव चित्रण नहीं किया, बल्कि उन्नीसवीं सदी के उतर भारत की पूरी सभ्यता का ऐसा पूर्ण चित्र उपस्थित किया है और प्रकारांतर से अंतरराष्ट्रीय मामलों को भी इस तरह पेश कर दिया है कि देखकर आश्चर्य होता है कि एक ही उपन्यास के अंदर यह सब कैसे आ गया। वहीं जेनिफर डब्रो (Jenifer Dubrow) (जो की वाशिगटन विश्वविद्यालय में सह-प्राध्यापक हैं और दक्षिण एशियाई भाषाओं और सभ्यता में पी.एच.डी. धारक हैं।) का मानना है कि फ़साना-ए-आज़ाद सामाजिक प्रकारों, पात्रों, बोलने की शैली, कपड़े, आदि की एक विस्तृत विविधता का मज़ाक उड़ाती है। वह साथ में यह भी कहते हैं कि यह एक व्यंगात्मक कार्य के रूप में है, जो लखनऊ की पुरानी नवाबी संस्कृति और पश्चिम की अलोकतांत्रिक अनुकरण दोनों की आलोचना करती है।
ऊपर दिए गये चित्र में रतन नाथ सरशार की रचना ‘फ़सान-ए-आजाद’ का मुखपृष्ट दिखाई दे रहा है।
संदर्भ :-
1. http://pahalpatrika.com/frontcover/getdatabyid/207?front=27&categoryid=13
2. https://www.youtube.com/watch?v=luqQasMPW70&feature=youtu.be
3. https://bit.ly/2Vw98RF
4. https://bit.ly/2GL3emk
5. https://lucknow.prarang.in/1807041513
चित्र सन्दर्भ :-
1. https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Fasan-e-Azad.jpg