भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना यहां के नागरिकों के लिये एकदम नयी घटना थी, जिसकी तुलना किसी और राजनीतिक अथवा आर्थिक परिवर्तन से नहीं की जा सकती थी। इससे पहले भारत कभी ऐसी आर्थिक व्यवस्था में नहीं बंधा था जिसका संचालन-केंद्र विदेश से हो रहा हो। इसके बाद उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश भारत में आर्थिक संरचना में काफी क्रमिक परिवर्तन देखे गये। 1858 में शासन प्राधिकरण की घोषणा के बाद ये बदलाव अधिक तेजी से और उल्लेखनीय होने लगे थे। ब्रिटिशों के हाथों में भारतीय प्रशासन आ जाने से निश्चित रूप से भारत में संरचनात्मक परिवर्तन तो आने ही थे। इन परिवर्तनों की एक स्पष्ट तस्वीर द ग्रेट नॉर्थ ऑफ इंडिया (The Great North of India) प्रदान करता है और आगरा तथा अवध के संयुक्त प्रांत उन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है जहां प्रांतों के ग्रामीण और शहरी हिस्सों में विभिन्न आर्थिक परिवर्तन हुए हैं।
शोधकर्ता निधि शास्त्री के अध्ययन का केंद्र विषय “संयुक्त प्रांत आगरा और अवध में आर्थिक परिवर्तन” (अंग्रेजी में - Economic transition in the United Province of Agra and Oudh) है। इस अध्ययन में उन्होंने 1828 से 1888 तक के आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत में होने वाले आर्थिक परिवर्तनों की एक स्पष्ट तस्वीर प्रदान की है। उन्होंने बताया कि प्लासी की लड़ाई (1757 ईसवी) और बक्सर की लड़ाई (1764 ईसवी) भारत के आर्थिक इतिहास में एक बदलाव का समय था। उत्तरी भारत की आर्थिक शक्तियां और अधिकार अंग्रेजों के हाथों में चले गये, जिन्होंने धीरे-धीरे प्रशासन की अपनी प्रणाली का निर्माण शुरू किया, जिसमें मूल निवासियों की बहुत कम हिस्सेदारी थी। सरकार की नीति से आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत भी प्रभावित थे।
आर्थिक परिवर्तन का संक्षिप्त सर्वेक्षण बताता है कि ब्रिटिश शासन के तहत औद्योगिक क्रांति का प्रभाव गाँव की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ प्रांतों पर भी पड़ा था। इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति का अच्छा प्रभाव देखने को मिला परंतु भारत में, औद्योगिक क्रांति के प्रभाव का मतलब भारतीय हस्तशिल्प का विनाश था और आधुनिक कारखाने उद्योग की पर्याप्त वृद्धि भी नहीं हो रही थी। नतीजतन, पतन तथा ग्रामीणीकरण की एक प्रक्रिया शुरू हो गई। वहीं दूसरी ओर नई भूमि राजस्व प्रणाली, कृषि का व्यवसायीकरण और भारत के आर्थिक निकास से प्रांतों को बहुत नुकसान हुआ जिसने सभी प्रांतों की अर्थव्यवस्था को कमजोर करने का काम किया।
भारत में आर्थिक व्यवस्था के पतन की प्रक्रिया की शुरूआत निम्नलिखित चरण से प्रारम्भ हुई थी:
क) ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापक प्रत्यक्ष लूट से, ख) ब्रिटिश द्वारा सिंचाई और सार्वजनिक कार्यों की बेपरवाही से, ग) भारतीय भूमि प्रणाली के विध्वंस और इसकी जगह जमींदारीकरण तथा व्यक्तिगत भूमि-धारण की प्रणाली आने से, घ) यूरोप और इंग्लैंड के लिए भारतीय निर्माताओं के निर्यात पर प्रत्यक्ष प्रतिबंध और भारी शुल्कों द्वारा।
यह संचालन 19वीं शताब्दी के दौरान ब्रिटिशों द्वारा होता रहा और भारत में इनके द्वारा शुरू की गई सरकारी नीतियों ने भारतीय आर्थिक ढांचे को तोड़ दिया। ब्रिटेन के औद्योगिक पूंजीपतियों का भारत में आने का एक स्पष्ट उद्देश्य था, वे कच्चे माल की आपूर्ति और यहां से निर्मित सामान का अवशोषण करके भारत की अर्थव्यवस्था को कमजोर करना चाहते थे। ब्रिटेन (Britain) ने विदेशी मशीन (Machine) उद्योग की तकनीकी के आधार पर भारतीय बाजार पर कब्जा कर लिया और उसी समय यूरोप में भारतीय निर्यात को अवरुद्ध कर दिया गया तथा भारत में ब्रिटिश सामानों के मुफ्त प्रवेश की अनुमति दे दी गई। इस कारण लाखों कारीगरों और शिल्पकारों के उद्योग का विकास नहीं हुआ। इतना ही नहीं, जो हथकरघा और चरखा भारतीय समाज की अर्थव्यवस्था का आधार थे उसे ब्रिटिशों ने भारत से पूरी तरह से उखाड़ फेंका। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की जड़ों को हिला दिया था तथा गांव की अर्थव्यवस्था के संतुलन को उलट पलट कर रख दिया।
1880 के बाद से, प्रमुख यूरोपीय शक्तियों और संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूरी दुनिया के उपनिवेशों में शोषण करना शुरू कर दिया। यह वित्त-पूंजीवादी शोषण भारत पर पूरी तरह से हावी हो गया। भारत में ब्रिटिश पूंजीवादी निवेश 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रेलवे निर्माण के साथ-साथ चाय, कॉफी (Coffee) और रबड़ (Rubber) के बागानों और अन्य छोटे उद्यमों की स्थापना के साथ तीव्र गति से विकसित हुआ। 19वीं शताब्दी में भारतीय उद्योगों की बर्बादी ने शहर और गांवों में लाखों कारीगरों की आजीविका को नष्ट कर दिया। इतना ही नहीं ब्रिटिशों की कृषि और भूमि राजस्व प्रणाली ने गाँव की अर्थव्यवस्था को विध्वंस कर भारत में किसान को सड़क पर ला कर खड़ा कर दिया और ग्रामीण पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को अकाल का सामना करना पड़ा।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश सरकार द्वारा लम्बे समय तक भारत का शोषण किया गया था, उन्होंने फूट डालो और राज करो की अपनी नीति द्वारा भारत को गुलाम बना लिया था और उनका मुख्य उद्देश्य हमेशा से इंग्लैंड के हितों की सेवा करना था। इस प्रकार, 1947 में जब अंग्रेजों ने भारत को सत्ता हस्तांतरित की, तो हमें एक गतिहीन कृषि व्यवस्था के साथ अविकसित उद्योग तथा गरीबी में डूबी एक अपंग अर्थव्यवस्था विरासत में मिली।
संदर्भ:
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