कुछ प्राचीन लिपियाँ आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई हैं। उन्ही में से एक है शंख लिपि। शंखलिपि का उपयोग विद्वानों ने सर्पिल ब्राह्मी वर्णों का वर्णन करने के लिए किया है, इस लिपि के वर्ण 'शंख' से मिलते-जुलते कलात्मक होते हैं। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि शंखाकृति उभरकर सामने दिखाई देती है। इसलिए इसे शंख लिपि कहा जाने लगा। भारत तथा जावा में प्राप्त बहुत से शिलालेख शंखलिपि में हैं।
भारत में यह दक्षिण के विभिन्न भागों में शिलालेखों में पाए जाते हैं जो 4वीं और 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व के है। ये लिपि ज्यादातर मंदिर के खंभों, स्तंभों और चट्टान की सतहों पर उत्कीर्ण की गई थी। लखनऊ संग्रहालय में कुछ शंखलिपि वाले शिलालेख है और इनके साथ एक घोड़े की बहुत ही अनोखी प्रतिमा है। इस पर भी शंखलिपि में ‘श्री महेन्द्रादित्य’ उत्कीर्ण है। यह गुप्त काल के एक अश्वमेध की मूर्ति है। आइए हम इस मूर्तिकला के साथ साथ अश्वमेध के अनुष्ठान के बारे में भी जानते हैं।
दरअसल कई गांवों में प्राचीन टीले हैं, जिनमें मूर्तिकला के टुकड़े पाए गए हैं और इसमें सबसे उल्लेखनीय प्रतिमा खैरीगढ़ खीरी की है। ये पत्थर की प्रतिमा एक घोड़े की है और खैराबाद के पास पायी गई थी और इस पर 4वीं शताब्दी के समुद्रगुप्त के शिलालेख को अंकित किया गया है। मगध के राजा समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया जिसमें एक घोड़े को पूरे देश में स्वतंत्र रूप से घूमने के लिए छोड़ दिया जाता है, ताकि राजा की शक्ति का प्रदर्शन किया जा सके और उनकी विजय के महत्व को रेखांकित किया जा सके। इस घोड़े की पत्थर की प्रतिकृति, अब लखनऊ संग्रहालय में है। इस घोड़े की तस्वीर आप नीचे देख सकते है।
अश्वमेध मुख्यत: राजनीतिक यज्ञ होता था, और इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका अधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे। अश्वमेध भारतवर्ष का प्राचीन कालीन एक प्रख्यात यज्ञ का नाम है। इस यज्ञ के अंतर्गत एक घोड़ा एक योद्धा के साथ पूरे देश में छोड़ा जाता था। ये घोड़ा जहां तक जाता था, वहां तक की भूमि उस राजा के अधिकार में मानी जाती थी। यदि कोई इसका विरोध करता था, तो उसे उस राजा के साथ युद्ध करना पड़ता था। यदि कोई दुश्मन घोड़े को मारने या पकड़ने में कामयाब नही होता था और घोड़ा राजधानी में वापस आ जाता था तो यज्ञ संपन्न माना जाता था। इसके बाद घोड़े की बलि दी जाती थी, और राजा को एक निर्विवाद सम्राट घोषित किया जाता था।
अश्वमेध केवल एक शक्तिशाली राजा द्वारा संचालित किया जा सकता था। इसका उद्देश्य शक्ति और महिमा प्रदर्शन करना, पड़ोसी प्रांतों पर संप्रभुता, और राज्य की समृद्धि करना था। इसे दिग्विजय-यात्रा कहा जाता था, घोड़े की वापसी के बाद, उत्सव मानाये जाते थे। घोड़े को तीन अन्य घोड़ों के साथ सोने के रथ पर चढ़ा कर और ऋग्वेद 1.6.1,2 का पाठ किया जाता था। फिर घोड़े को पानी में उतारा जाता है और नहलाया जाता है। इसके बाद, मुख्य रानी और दो अन्य शाही लोगों द्वारा घी से अभिषेक किया जाता है तथा स्वर्ण आभूषणों के साथ घोड़े के सिर, गर्दन और पूंछ को भी सुशोभित किया जाता था। इसके बाद, घोड़ा, एक सींग रहित बकरी, एक जंगली बैल आग के पास बलि के लिए बंधे होते थे, और सत्रह अन्य जानवर घोड़े से जुड़े होते थे। मुख्य रानी औपचारिक रूप से राजा की अन्य पत्नियों को बुलाती थी और रानियाँ मृत घोड़े के चारों ओर मंत्र पढ़ती हुई चलती थी। मुख्य रानी को मृत घोड़े के साथ एक रात बितानी होती है। अगली सुबह, पुजारी रानी को जगह से उठाते हैं और घोड़े के पुनर्जनन के लिये श्लोकों का पाठ करना शुरू करते थे तथा आत्मा की शांति की मांग करते थे।
हिंदू पौराणिक कथाओं में घोड़ा सूर्य का प्रतीक है, हिंदू पौराणिक कथाओं में घोड़ा सूर्य का प्रतीक है, और आरम्भिक जल इसका अस्तबल और जन्मस्थान माना जाता है। धर्म ग्रंथों में अनेक स्थान पर अश्वमेध यज्ञ का वर्णन आता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम व महाभारत के अनुसार युधिष्ठिर ने भी ये यज्ञ करवाया था।
संदर्भ:
1.https://en.wikipedia.org/wiki/Lakhimpur_Kheri_district
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Ashvamedha
3.https://en.wikipedia.org/wiki/Shankhalipi
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