महात्मा गाँधी की मदद से कैसे बनी चमड़े की चप्पलें भारतीय आत्मनिर्भरता का प्रतीक

लखनऊ

 19-03-2019 07:00 AM
स्पर्शः रचना व कपड़े

खडक (पादुका) प्राचीन काल से ही हमारे समाज का एक अभिन्न अंग रही है। जैसे जैसे समय बितता गया वैसे वैसे इसका स्वरूप भी बदलता गया। एक समय के बाद पादुका की जगह साधारण सी चप्पलों या सैंडल ने ले ली। सैंडल या चप्पले भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में उपयोग किए जाते है। वैसे तो सैंडल विभिन्न डिजाइनों में आती है परंतु इस सभी को एक पारंपरिक पैटर्न के अनुरूप ही बनाया जाता है। इसमें एक तला होता है जिसमें दो पट्टे और एक अंगूठेदार पट्टा होता है। महात्मा गांधी (1869-1948) ने इस साधारण सी दिखने वाली चप्पल को भारतीय आत्मनिर्भरता के प्रतीक में बदल दिया था।

महात्मा गांधी भारत के महान राष्ट्रीय नेता और राजनीतिक थे, जिन्होनें सूती कपड़े और खुद के हाथों से निर्मित सैंडल पैरों में पहन कर देश को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़या। गांधी जी ने 1915 में स्थापित किये गये साबरमती आश्रम (अहमदाबाद, गुजरात), में एक चर्मशोधनशाला की स्थापना की थी और उन्होनें व्यक्तिगत रूप से सेवकों को आश्रयपट्टी या गांधी चैपल बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। इससे कुछ साल पहले महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये काफी संघर्ष किया था। इस दौरान महात्मा गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका जेल यात्रा भी करनी पड़ी थी, जेल में रहते हुए गांधी जी ने सैंडल बनाई। बाद में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया और भारत के लिए रवाना हो गए, परंतु भारत आने से पहले उन्होंने एक जोड़ी चप्पल जेल के मुख़्तार जन क्रिश्चियन स्मट्स (1870-1950) को दी थी। स्मट्स कहते है कि 'मैंने कई गर्मियों तक ये सैंडल पहने, हालांकि मुझे नहीं लगता है कि मैं इतने महान व्यक्ति द्वारा बनाये गये जूते पहनने के लायक हूं।'

भारत आने के बाद गांधी जी देश को अंग्रेजों से आजाद कराने की दिशा में बढ़ने लगे। स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए गांधी जी ने आंदोलन के दौरान स्वदेशी कपड़े और चप्पल शुरू किया जिससे कुटीर शिल्प उद्योगों की गहन समझ को बढ़ावा मिला। गांधी जी चाहते थे की उनके इस प्रयास से जाति के अनुसार कार्य के विभाजन की प्रथा समाप्त हो जाये, ग्रामीण जीवन शैली में सुधार आये और लोगों में समतावाद और आत्मनिर्भरता का भाव जाग्रत हो। उन्हें उम्मीद थी कि वह प्रयास पूरे भारतीय समाज को प्रभावित करेगा।

1992 में राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान, अहमदाबाद द्वारा शिल्प संग्रहालय, नई दिल्ली के लिए किये गये चप्पल उत्पादन के अध्ययन से गांधी विचारधारा और महाराष्ट्र एंव कर्नाटक के गाँवों के चप्पल उद्योगों के बीच की कड़ी को शामिल किया था। रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वदेशी चप्पल को डिज़ाइन कर उन्हें एक अलग रूप दिया गया और कनवली नाम जाना जाने लगा। 1920 के दशक के अंत में सौदागर परिवार ने अपने नई डिज़ाइन वाले इस चप्पल को मुंबई के मशहूर जे जे एंड संस शूज नामक दुकान के मालिक को बेचा। इस रिटेलर की दुकान पर इसको बहुत अधिक पसंद किया गया। उन्होंने कोल्हापुरी चप्पल नाम का उपयोग करके मुंबई, कलकत्ता और पुणे में इन चप्पलों को बेचा। 1940 के दशक तक पूरे भारत में फुटवियर का उत्पादन और व्यापार बढ़ने लगा। 1965 में भारत सरकार ने इस बाजार को मज़बूत करने के प्रयासों के तहत खादी और ग्रामोद्योग आयोग का गठन किया।

इस आयोग ने कई कारीगरों के रोजगार को बढ़ावा दिया, काम के लिए उचित मजदूरी निर्धारित की, पारंपरिक कौशल को प्रोत्साहित किया और आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव को कम करने का प्रयास किया। अंततः गांधी जी द्वारा किया गया समतावाद और आत्मनिर्भरता का प्रयास सफल होता दिखाई देने लगा।

संदर्भ:
1. Neubauer,Jutta Jain Feet & Footwear in Indian Culture(2000) The Bata Shoes Museum,Toronto Canada



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