भारत कला का धनी राष्ट्रं है, यहां हर भाग में कला के भिन्नं-भिन्न रूप दिखाई देते हैं। ऐसी ही एक प्रसिद्ध कला है लखनऊ की हाथी के दांत तथा अन्य पशुओं की हड्डियों पर की जाने वाली कलाकारी। 1990 के दशक में हाथी दांत पर वैश्विक प्रतिबंध के बाद व्यापार लगभग बंद हो गया, लेकिन कारीगरों ने यही कार्य भैंस और ऊंट की हड्डियों पर करना प्रारंभ कर दिया, जिसके माध्यरम से उन्होंकने अपनी कला को जीवित रखा। लखनऊ के कई शिल्प्कार परिवारों ने सदियों पुरानी इस हाथी दांत शिल्पपकला को संजो कर रखा। किंतु हाथी के दांत पर प्रतिबंध लगने के बाद इन्होंीने इस कला को पशुओं (ऊँट और भैंस) की हड्डियों के माध्यिम से जीवित रखा। लखनऊ में एक शिल्पसकार का परिवार लगभग पिछले 750 वर्षों से हाथी दांत पर कारीगरी कर रहा है। इन कारीगरों के पूर्वज मूलतः लाहौर से थे जिनमें से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व तीन परिवारों ने लाहौर छोड़ दिया तथा दिल्लीं, बनारस और अवध में आ कर बस गये तथा यहीं से अपनी कला को आगे बढ़ाया। हाथी के दांत से सजावटी सामग्री, शतरंज के प्यागदे, चाकू इत्याेदि बनाये जाते हैं।
इनके द्वारा बोनक्राफ्ट से तैयार किया गया ताजमहल विश्वर प्रसिद्ध है, जिसमें सजावट के लिए लाल रंग के छोटे-छोटे बल्बत लगाये जाते हैं। अस्थिशिल्प ज्यादातर ब्रिटेन, अमेरिका और फ्रांस को निर्यात किए जाते हैं। हजारों पैटर्न में तैयार किए गए ये अस्थिशिल्प गहनों, कपड़ों और पर्दों में उपयोग किए जाते हैं। लखनऊ प्रमुखतः अपने जालीदार काम के लिए प्रसिद्ध है। दिल्लीे निर्यात का प्रमुख केन्द्र0 है जहां से मशीन निर्मित सामान बड़ी मात्रा में आयात किए जाते हैं साथ ही यहां से निर्यात किेये जाने वाले हस्त र्निमित सामान अधिकांशतः लखनऊ से होता है। इन सजावटी सामानों में फूलों की नक्कााशी, आखेट के दृश्यध इत्याादि काफी लोकप्रिय हैं, जो जाली कार्य के रूप में किये जाते हैं।
कारीगर स्थानीय बाजार से भैंस और ऊँट की हड्डियां खरीदकर उन पर कारीगरी करते हैं। लखनऊ में मुख्य्तः भैंस की हड्डी पर कारीगरी की जाती है, क्योंोकि ऊँट की हड्डी यहां आसानी से नहीं मिलती है। एक व्यापारी बूचड़खानों से लगभग दो से तीन क्विंटल हड्डियां खरीदता है क्योंकि विदेशों में इस तरह कलाकृति की भारी मांग है। हड्डियों पर की जाने कारीगरी के लिए अत्यंित कौशल एवं मेहनत की आवश्यलकता होती है। सर्वप्रथम इन्हेंो साफ किया जाता है फिर आवश्य्क आकृति देने के लिए इन्हेंा काटा जाता है फिर उन पर नक्कानशीदार जाली कार्य किया जाता है।
हड्डियों को हाथी के दांत के समान सफेदी प्रदान करने के लिए हाइड्रोजन पेरोक्साइड विलयन में डुबोया जाता है। अंतिम चरण में तैयार आकृति को परिसज्जित किया जाता है। वंशानुगत कारीगरों का दावा है कि जोड़ों के लिए गोंद के साथ एक रहस्यामयी मिश्रित मसाले का उपयोग करते हैं जो उन्हेंत परिवारिक विरासत के रूप में मिला है। हड्डियों या सींगों को जटिल टुकड़ों में तराशने की कला को नवाबों के काल में अधिकतम संरक्षण मिला था। लखनऊ के लगभग 350 परिवार अस्थि शिल्पा के कार्य में संलग्नं हैं। अभी कुछ समय पूर्व अवैध बूचड़खानों पर नकेल कसने के कारण लखनऊ के शिल्पाकारों का व्यतवसाय खतरे में आ गया है।
सन्दर्भ:
1. https://bit.ly/2TEhiHz© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.