विकास के लिए जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है, उससे पर्यावरण एक गंभीर खतरे में आ गया है। वहीं औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और खेती योग्य भूमि आदि के लिए भूमि क्षेत्र की बढ़ती माँगों के कारण वनों का अंधाधुन्ध कटान हो रहा है, जिसकी वजह से कई वन्य जीव भी विलुप्त हो रहे है।
भारत विश्व में सातवां सबसे बड़ा और एशिया में दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है जिसका क्षेत्रफल 328.72 मीटर है। भारत में पौधों की लगभग 17,000 प्रजातियां और 5400 स्थानिक प्रजातियां मौजूद हैं। भारत में वनों की कटाई का आरंभ पूर्व-औपनिवेशिक युग के दौरान शुरू की गई थी, जब आदिवासियों द्वारा जीवन यापन के लिए स्थानान्तरण कृषि को अपनाया गया था। बाद में कृषि के स्थाई रूप को अपनाया गया, जिसके लिए अधिक वनों के क्षेत्रों की कटाई शुरू कर दी गई और बाद में, धीरे-धीरे जंगलों को व्यावसायिक उद्देश्यों (कच्चे माल के स्रोत और वन-आधारित उद्योगों) के लिए इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया गया था।
वनों की कटाई के दुष्परिणाम विभिन्न पर्यावरणीय मुद्दों के परिणामस्वरूप आते हैं, जिन्हें हम ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण आदि के रूप में देख सकते हैं। वनों के संरक्षण के लिए कुछ कदम निम्नलिखित हैं:
1) राष्ट्रीय वन नीति: इस नीति में संयुक्त वन प्रबंधन और स्थानीय गांवों के लोगों को मिलकर वनों की देखभाल करनी चाहिए। इसके लिए स्थानीय गांवों को उस विशेष वन क्षेत्र की आय का 25% हिस्सा दिया जाता था।
2) रिजर्व फॉरेस्ट का संरक्षण: रिजर्व फॉरेस्ट मुख्य रूप से राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के साथ-साथ हिमालय, पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट में स्थित हैं। इन सभी क्षेत्रों में, वाणिज्यिक दोहन पर रोक लगाई जानी चाहिए।
3) स्थानीय लोग की सहभागिता: वन संरक्षण के लिए आम लोग एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन इसके लिए लोगों में जागरूकता होनी चाहिए। वन की वृद्धि के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सार्वजनिक लोगों का समर्थन होना चाहिए। वन संरक्षण के लिए किये गए आंदोलनों में से एक चिपको आंदोलन (1972) था।
4) वनीकरण योजना को अपनाना: भारत के वाणिज्यिक क्षेत्र के लिए कच्चे माल के स्रोत के रूप में वन कार्य करता है। अतः अधिक समय तक वन आधारित उद्योगों की इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए बंजर या परती भूमि में वृक्षारोपण को बढ़ावा देना चाहिए।
1970 के बाद से 60% स्तनधारियाँ, पक्षियाँ, मछलियाँ और सरीसृप विलुप्त हो गए हैं, जिसकी वजह मनुष्य ही है। वहीं भोजन आपूर्ति के लिए मनुष्यों द्वारा 300 स्तनपायी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी है। सबसे बुरी तरह प्रभावित क्षेत्र दक्षिण और मध्य अमेरिका है, जहाँ कशेरुकी की आबादी में 89% की गिरावट देखी गई है।
निम्नलिखित वनों को बचाने के कुछ कारण हैं जो ये बताते हैं कि वन्यजीव पृथ्वी पर पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं:
एक स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र के लिए: जैसा की हम जानते हैं कि पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न जीवों में संतुलन खाद्य जालें (Food Chains) और खाद्य श्रंखला के माध्यम से जुड़ा है। यहां तक की यदि एक भी वन्यजीव प्रजाति पारिस्थितिक तंत्र से विलुप्त हो जाती है, तो इससे पूरी खाद्य श्रंखला प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए, कई फसलों के विकास में मधुमक्खी द्वारा पुष्प-रेणु को ले जाना एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि मधुमक्खियों की संख्या कम हो जाती है, तो परागण की कमी के कारण खाद्य फसलों की वृद्धि निश्चित रूप से कम होने लग जाएगी।
उनके औषधीय मूल्यों के लिए: पौधे किसी ना किसी रूप में मनुष्यों को लाभ पहुंचाते हैं। एस्पिरिन, पेनिसिलिन, क्विनिन, मॉर्फिन और विन्क्रिस्टाइन जैसी कई दवाइयाँ असिंचित पौधों से बनाई जाति हैं। वहीं प्राचीन औषधीय प्रणाली आयुर्वेद में भी विभिन्न पौधों और जड़ी बूटियों के अर्क और रस के माध्यम से कई दवाईयाँ भी बनाई गई हैं।
कृषि और खेती के लिए: पौधों से हमें जो फल और सब्जियां मिलती हैं, वे परागण की मदद से ही हमें मिलती है, पौधों में नर फूल से पराग कणों को मादा फूल में स्थानांतरित किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप बीज का उत्पादन होता है। इस परागण के लिए, पक्षी, मधुमक्खी और कीड़े एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
स्वस्थ वातावरण के लिए: पर्यावरण को स्वच्छ और स्वस्थ रखने में वन्यजीव भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कई सूक्ष्म जीव, बैक्टीरिया, कवक और केंचुए, पौधों और जानवरों के अपशिष्टों का सेवन करते हैं, उन्हें विघटित करते हैं और रसायनों को वापस मिट्टी में छोड़ते हैं, जिससे मिट्टी में पोषक तत्व घुल जाते हैं। वहीं ईगल और गिद्ध द्वारा जानवरों के मृत शरीरों का सेवन किया जाता है, जिससे पर्यावरण साफ रहता है। ज़रा कल्पना कीजिए कि हमारे आस-पास मृत शरीरों का ढेर लगा हो, तो पर्यावरण कैसा लगेगा।
लखनऊ के कुकरैल रिजर्व फॉरेस्ट को विशेष रूप से मगरमच्छों के संरक्षण के लिए बनाया गया था। इसे भारत में घड़ियालों की संख्या कम होने के बाद बनाया गया था। यह केंद्र विश्व भर में इन सरीसृपों के संरक्षण के लिए प्रसिद्ध हैं। उत्तर प्रदेश में, मगरमच्छ मुख्य रूप से रामगंगा नदी, सुहेली नदी, गिरवा नदी और चंबल नदी में पाए जाते हैं। 1975 में प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ के अध्ययन से मादा मगरमच्छों के लिए एक प्रजनन मैदान विकसित करने की आवश्यकता महसूस की गई ताकि वे सुरक्षित स्थान में अंडे दे सकें और नवजात मगरमच्छों को सुरक्षित रख सकें।
संदर्भ :-
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