भारत में अखबार का इतिहास

लखनऊ

 05-03-2019 11:48 AM
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक

खींचो न कमानों को न तलवार निकालो,
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो

अख़बार को मौजूदा जानकारी देने के एक मुद्रित साधन के रूप में परिभाषित किया जाता है। आज भारत में समाचार पत्र हमारे समाज की एक अत्याधिक प्राभावशाली संस्था है और इसका मूल कार्य सूचना, शिक्षा और मनोरंजन प्रदान करना है। यह समाज में एक “प्रहरी” की भूमिका निभाता है। अखबार समाज का वह दर्पण है जिसने इतिहास में समाज की छवि बदलने में अहम भूमिका निभाई है। प्रिटिंग तकनीक के अविष्‍कार ने विभिन्‍न सामाज सुधारकों, राजनीतिक व्‍यक्तियों, तथा अन्‍य लोग जो समाज में चल रही कुप्रथाओं के प्रति आवाज उठाते हैं उन्‍हें एक मंच प्रदान किया। समाचार पत्र का सबसे महत्‍वपूर्ण कारक भाषा थी, विभिन्‍न समाज सुधारकों ने अपनी बात जनता के समक्ष रखने के लिए स्‍थान विशेष में प्रचलित भाषा में अपनी पत्र-पत्रिकाएं छापी।

ब्रिटिश प्रशासन के तहत पहला भारतीय न्यूज पेपर
भारत का पहला अखबार 'द बंगाल गैजेट' को 29 जनवरी 1780 में ब्रिटिश राज के तहत जेम्स अगस्टस हिक्की द्वारा प्रकाशित किया गया था। इसे 'कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर' (Calcutta General Advertiser) भी कहा जाता था और लोग इसे 'हिक्की गेज़ेट' के रूप में याद करते हैं। यह बहुत छोटा और दो पन्नों का साप्ताहिक अखबार था जो बहुत सारे विज्ञापनों से भरा रहता था इसके पहले पेज पर केवल विज्ञापन ही होते थे। इसके बाद नवंबर 1780 में मेसियर बी मेस्नैक और पीटर रीड ने ‘इंडियन गज़ट’को प्रकाशित किया था।

इसके बाद जैसे जैसे समय आगे बढ़ता गया ईस्ट इंडिया प्रशासन के अंतर्गत अन्य अखबारों और साप्ताहिक पत्रिकाओं का उद्भव तेजी से होने लगा, आइये इन पर नज़र डालते हैं :
1784 - कलकत्ता गेज़ेट
1785 - बंगाल जर्नल
1785 - अंग्रेजी भाषा में मद्रास में रिचर्ड जॉनसन द्वारा प्रकाशित 'मद्रास कूरियर'
1796 - हम्फ्रे का 'इंडिया हेराल्ड'
1789 - बॉम्बे हेराल्ड (बॉम्बे में प्रकाशित पहला समाचार पत्र)
1789 - बॉम्बे कूरियर
1791 - बॉम्बे गज़ट

इस अवधि को सख्त सरकारी नियंत्रण और सेंसरशिप के लिए जाना जाता था। अगर कोई अख़बार सरकार के खिलाफ कोई खबर छापता था तो उसके प्रकाशक को सख्त सजा दी जाती थी। इसलिए, 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी के प्रारंभ में, कोई भी प्रतिष्ठित पत्रकार या समाचार पत्र का उदय नहीं हुआ। फिर 1811 में कलकत्ता के कुछ व्यापारियों ने 'कलकत्ता क्रॉनिकल' नामक अखबार शुरू किया और इसके संपादक जेम्स सिल्क बकिंघम (एक अंग्रेजी पत्रकार) थे। क्या आप जानते हैं कि बकिंघम पहले पत्रकार थे, जिन्होंने सामाजिक सुधारों और प्रकाशक की स्वतंत्रता के लिये आवाज उठाई थी। जेम्स बकिंघम ने भारत में पत्रकारिता को लेकर एक नया दृष्टिकोण पेश किया। उन्होंने स्पष्ट पत्रकारिता की पहल की और स्थानीय लोगों और उनके जीवन की समस्याओं को शामिल किया। यहां तक कि उन्होंने ‘सती प्रथा’के खिलाफ भी आंदोलन शुरू किया था। इसके बाद एक समाज सुधारक “राजा राम मोहन राय” ने समाचार पत्रों की शक्ति को पहचाना और भारतीय प्रशासन के अंतर्गत 1822 में एक बंगाली समाचार पत्र 'संवाद कौमुदी' की शुरूआत की इसके साथ ही उन्होंने एक अन्य फ़ारसी अख़बार 'मिरात-उल-अखबार' की भी शुरूआत की थी।

भारत का पहला फारसी अखबार 12 अप्रैल 1822 को, राजा राममोहन रॉय द्वारा छपवाया गया जिसका नाम “मिरात-उल-अखबार” था। यह एक फ़ारसी विद्वान और दृढ़ समाज सुधारक थे, जो सत्य की खोज पर विश्वास करते थे। इन्‍होंने बुद्धिजीवियों या शीर्ष नीति निर्धारकों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए फारसी को एक अच्छे विकल्प के रूप में देखा, साथ ही वे अपने विचारों को फारसी भाषा में सहजता से अभिव्‍यक्‍त कर सकते थे। इनके द्वारा लिखे गये कई लेख अखबार में संपादित किये गये। इनके करीबी दोस्त और प्रशंसक, जेम्स सिल्क बकिंघम ने इस प्रयास में इनकी मदद की। राममोहन और जेम्स ने सामान्य हित के मुद्दों और मिरात-उल-अखबार के प्रकाशन से संबंधित मुद्दों पर काफी चर्चाएं की।

मिरात-उल-अखबार हर शुक्रवार को प्रकाशित किया जाता था, जिसका उद्देश्‍य जनता को अपनी सामाजिक स्थितियों में सुधार करने और शासकों को प्रजा की वास्तविक स्थिति का ज्ञान देना था। अखबार में गरिमापूर्ण भाषा का उपयोग किया गया था, राजा राममोहन रॉय ने प्रतिज्ञा की थी कि वे अपने अखबार के माध्‍यम से किसी भी व्‍यक्ति विशेष की भावाना या आत्‍म सम्‍मान को ठेस नहीं पहुंचाऐंगे। हालांकि इन्‍होंने उस दौरान समाज में व्‍याप्‍त सामाजिक बुराईयों पर अपनी प्रतिक्रिया दी साथ ही आयरलैंड में जारी अन्याय के लिए ब्रिटिश सरकार की आलोचना की, स्वतंत्रता के यूनानी युद्ध में तुर्कों का समर्थन किया और सार्वभोमिक मामलों में बैपटिस्ट मिशनरियों की निंदा की। मिरात-उल-अख़बार के माध्यम से, इन्‍होंने अपने सांस्कृतिक उत्थान के विचारों को लोगों तक पहुंचाया और व्यापक सामाजिक त‍था धार्मिक सुधारों का आह्वान किया।

जेम्स सिल्क बकिंघम के स्वामित्व वाले एक समाचार पत्र कलकत्ता जर्नल में सबसे पहले यह स्वीकार किया कि मिरात-उल-अख़बार अपनी सामग्री और प्रस्तुति दोनों की दृष्टि से सबसे अधिक छपने वाला अखबार है। परंतु राममोहन के धार्मिक सुधारों की पहल ने रूढ़िवादी हिंदू समूहों में क्रोध को उत्पन्न कर दिया था। उसी समय रूढ़िवादी हिंदू समाचार पत्र तेजी से बढ़ने लगे और रूढ़िवादी हिंदू समूहों द्वारा धार्मिक मामलों में दखल देने के लिए उन्हें धमकी भी दी गई और हर कदम पर सामाजिक और धार्मिक सुधारों की पहल का विरोध किया गया। दूसरी ओर उनके द्वारा की गई ब्रिटिश प्रशासन की आलोचना ने औपनिवेशिक शासकों में भी क्रोध को उत्पन्न किया। ब्रिटिश शासन को राममोहन के इरादों पर संदेह होने लगा और ब्रिटिश शासन को उनके प्रकाशनों पर भी शंका होने लगी।

वहीं 10 अक्टूबर 1822 में डब्ल्यू.बी बेली द्वारा इंडियन प्रेस के सामान्य स्वर की आलोचना की गयी, उनका मानना था कि ये समाचार पत्र ब्रिटिश रूची के विपरित हैं, उन्होंने विशेष रूप से, मिरात-उल-अख़बार में अवध में अदालती साज़िशों, भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था के बारे में प्रकाशित रिपोर्टों का उल्लेख किया था। 1823 में, जॉन एडम (गवर्नर-जनरल) द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता को कम करने के लिए एक कठोर प्रेस अध्यादेश लाया गया, जिसमें व्यावसायिक जानकारी को छोड़कर प्रेस में प्रकाशित होने वाले सभी मामलों के लिए सरकार के मुख्य सचिव द्वारा हस्ताक्षरित गवर्नर-जनरल-इन काउंसिल के लाइसेंस का होना आवश्यक था। वहीं लाइसेंस के बिना प्रिंटिंग प्रेस का उपयोग करने वाली पुस्तकों और कागजों की छपाई को निषिद्ध कर देने का आदेश भी दे दिया गया था।

सरकार ने मिरात-उल-अख़बार और कलकत्ता जर्नल के लेखन से पाए गए कुछ आपत्तिजनक अंश का उल्लेख करते हुए इस नियम को उचित ठहराया। राममोहन ने प्रेस के इन नियमों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट और राजा के समक्ष अपील की, लेकिन उनकी अपीलों को खारिज कर दिया गया। वहीं जेम्स सिल्क बकिंघम को भारत से निकाल दिया गया और कलकत्ता जर्नल के लाइसेंस को भी रद्द कर दिया गया। 4 अप्रैल 1823 को, जिस दिन सुप्रीम कोर्ट में प्रेस अध्यादेश को दर्ज कर दिया गया और इसको लेकर कानून भी बना दिया गया। राममोहन द्वारा इसके विरोध में मिरात-उल-अखबर को बंद कर दिया गया।

1822 में फरदोंजी मुर्ज़बान द्वारा 'बॉम्बे समाचार' की शुरूआत भी की गई थी। यह वह समय था, जब बंगाली, गुजराती, और फारसी आदि भाषाओं में कुछ समाचार पत्रों का शुभारंभ हुआ था। 3 नवंबर, 1838 - टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपना पहला संस्करण द बॉम्बे टाइम्स और जर्नल ऑफ कॉमर्स प्रकाशित किया था। 1857 को भारत में स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ साथ पत्रकारिता का भी उदय हुआ। 1857 में भारतीय और ब्रिटिशों के स्वामित्व वाले अखबारों को विभाजित कर दिया गया और सरकार ने 1876 में वर्नाकुलर प्रेस अधिनियम पास किया था। यह वही समय था जब सामाजिक सुधारकों और राजनीतिक नेताओं ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना योगदान देना शुरू कर दिया था, जिनमें सी. वाई. चिंतामणी, एन. सी. केल्कर, फिरोजशाह मेहता आदि प्रमुख थे।

आजादी के बाद समाचार पत्रों में कई बदलाव आये। यहां तक कि पत्रकारों की कार्यशैली भी बदल गई। स्वतंत्रता के बाद, अधिकांश अख़बार भारतीय संपादकों के हाथों में आ गए थे। समाचार एजेंसी सेवाएं नियमित रूप से भारत के प्रेस ट्रस्ट के साथ उपलब्ध हुईं जिसकी शुरूआत 1946 में हुई थी। 1970 के दशकों तक अख़बारों ने एक उद्योग का दर्जा हासिल कर लिया था। वास्तव में भारतीय अखबार उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा है। इसकी एक लंबी और समृद्ध विरासत है। भारतीय समाचार पत्र उद्योग एक शक्तिशाली ताकत के रूप में विकसित हुआ है। यह पाठकों को सूचनाओं के साथ साथ मनोरंजन और शिक्षा से सम्बंधित जानकारी भी देता है ताकि वे देश के विकास में पूरी तरह से भाग ले सकें।

संदर्भ:
1. https://bit.ly/2IItOkb
2. https://bit.ly/2IIu2b1
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Mirat-ul-Akhbar



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