नौरोज़ को 20 या 21 मार्च को मनाया जाता है, जब सूरज मेष राशी में प्रवेश करता है तो फारस में नव वर्ष की शुरुआत होती थी। यह एक पारंपरिक वसंत उत्सव है। रामपुर के नवाब हामिद अली खान (1889-1930) ने 13 साल की उम्र में ही रामपुर के सिंहासन पर विराजमान हो गए थे। वो अपनी दायी माँ जेनाब आलिया के प्रभाव में खुद को शिया घोषित करने वाले पहले नवाब थे। इन्होंने अपनी नई प्रथाओं का अनुकरण स्वयं ही किया। उन्होंने रामपुर किले के अंदर एक शानदार इमामबाड़ा स्थापित करवाया और पैगंबर मोहम्मद के पोते की शहादत पर शोक व्यक्त करने के लिए मोहर्रम की रस्मों का पालन भी किया। मोहर्रम के चन्द्र मास के दौरान और उसके बाद के चालीस दिनों के इस शोक का पालन मुसलमानों के शिया संप्रदाय के लिए आस्था की आधारशिला है।
रामपुर अफगानिस्तान के रोहिल्ला पठानों द्वारा स्थापित की गई रियासत थी, जो मुसलमानों के सुन्नी संप्रदाय से संबंधित थे और नवाब की आस्था बदल जाने पर वहाँ मौजुद पठानों की संख्या घट गई, लेकिन इससे नवाब की शक्ति पर कोई असर नहीं पड़ा था क्योंकि उनके साथ ब्रिटिश थे। 1857 के विद्रोह के बाद अवध के राज दरबार की समाप्ति हो गई। उसके बाद रामपुर के दरबार में कई गायकों, नर्तकों और कवियों को आमंत्रित किया गया और यह नवाब हामिद अली खान के साथ प्रशिक्षित ध्रुपद गायकों और कवियों के कारण ललित कला का केंद्र बन गया था।
नवाब ने अपने दरबार की महीन वैभव से सभी को स्तब्ध कर दिया और नवाब द्वारा भोजन से लेकर मनोरंजन तक की सभी चीजों में लखनऊ संस्कृति का अनुकरण करने का प्रयास किया गया। इसके बाद नवाब ने फारसी नव वर्ष नौरोज़ को मनाना शुरू कर दिया। उन्होंने नौरोज को बड़े धुमधाम से मनाया और भोजन की मेज के केंद्र में सात अनाजों को सात चांदी के बर्तनों में प्रदर्शित किया गया था। नवाब की बेगमों को अपने धर्मों का पालन करने की स्वतंत्रता थी, परंतु वे नवाब के सख्त दरबारी शिष्टाचार की वजह से शियाओं की कई धार्मिक क्रियाओं का पालन करना उनकी मजबुरी थी। कुछ बेगम ने नवाब को खुश करने के लिए शिया में धर्मपरिवर्तन कर लिया।
वहीं दरबार में एक बेगम थी, मुनव्वर दुल्हन बेगम, उन्हें ये नाम नवाब से बलपूर्वक शादी कराने के बाद दिया गया था। उनके असल नाम को कोई नहीं जानता था। मुनव्वर बेगम एक पठान परिवार से संबंध रखती थी। मुनव्वर बेगम से निकाह करने के बाद नवाब ने उन्हें एक अलग महल महलसाहरा में रखा, जिसमें दरोगा, पहरेदारों और महिला पहरेदारों को तैनात रखा। बेगम द्वारा सुन्नी धर्म का ही पालन किया जाता था। उन्होंने शिया धर्म के धार्मिक कार्यों को करने के लिए कुछ महिलाओं को नियुक्त किया था, लेकिन वे मातम के हिंसक अनुष्ठानों का पालन नहीं करती थी। बेगम को अभिमानी माना जाता था और वे अन्य बेगमों के साथ भी रहना पसंद नहीं करती थी।
एक बार किसी ने नवाब को बताया कि लखनऊ में नौरोज़ को रंगों के साथ मनाया जाता है। यह सुन नवाब ने भी तुरंत रंगीन नौरोज़ की तैयारी का आदेश दे दिया। नौराज मनाने के लिए जिस रंग का इस्तेमाल किया जाना था उसे ईरान में मौलवियों द्वारा घोषित किया गया था। रंगीन नौरोज़ मनाने का स्थान शहंशाह मंजिल नामक महल में किया गया था। इस महल में एक बहुत बड़ा खुबसुरत मैदान और एक बड़ी निर्धारित रंग से भरी हुई टंकी भी थी। नवाब ने सबको वहाँ नौराज मनाने के लिए बुलाया था और एक बेगम द्वारा नवाब को रंग डाल कर नौराज को मनाना आरंभ किया गया। लेकिन आचानक से जब नवाब ने देखा की मुनव्वर बेगम वहाँ नहीं है तो उन्होंने उन्हें बुलाने का आदेश दिया। नवाब द्वारा कई बार बुलवाने पर भी बेगम नहीं आई। तो नवाब ने बेगम को उसके बिस्तर के साथ वहाँ लाने का आदेश दे दिया, जब पहेरेदारों द्वारा बेगम को वहाँ लाया गया तो नवाब ने बेगम को बिस्तर सहित रंग से भरी हुई टंकी में डालने का आदेश दे दिया। पेहरेदारों ने भी नवाब के आदेश का पालन कर मुनव्वर बेगम को टंकी में डाल दिया।
इसके बाद की कहानी में मुनव्वर बेगम का कहीं ओर जिक्र नहीं मिलता है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि बेगम निःसंतान थी और नवाब द्वारा दूसरी बेगम का एक बेटा उन्हें पालने के लिए दिया गया था। जिसके साथ वह नवाब की मृत्यु के बाद खास बाग में रहने लगी।
संदर्भ :-
1. http://taranakhanauthor.com/how-the-nawab-of-rampur-humiliated-his-proud-begum-on-nauroz/
2. http://taranakhanauthor.com/theperson/
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Hamid_Ali_Khan_of_Rampur
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