स्वस्थ एवं खुशहाल जिंदगी के लिए आज पूरी दुनिया ने योग के पथ का अनुसरण किया है। योग मूल रूप से एक आध्यात्मिक विज्ञान है। साथ ही यह इंद्रियों, शरीर एवं मस्तिष्क पर नियंत्रण रखने की कला भी है। योग आपकी आंतरिक शक्तियों में समन्वय करता है, एकाग्रता बढ़ाता है और आत्मिक शक्ति को जागृत करता है। योग के कई पथ होते है जिनकी चर्चा भगवत गीता के प्रत्येक अध्याय में भी की गई है। एक दूसरे से अलग होते हुए भी योग के पथों का लक्ष्य एक ही है, साथ ही ये एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। व्यक्ति अपनी क्षमताओं के आधार पर इनमें से किसी भी पथ का अनुसरण कर सकता है।
ज्ञान-योग:
ज्ञान योग ज्ञान और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने को कहते है, ज्ञान का अर्थ परिचय से है। ज्ञान योग वह मार्ग है जहां अन्तर्दृष्टि, अभ्यास और परिचय के माध्यम से वास्तविकता की खोज की जाती है। इसका पहला चरण "विवेक", दूसरा "वैराग्य" तथा तीसरा चरण "मुक्ति" है। ज्ञान के माध्यम से ईश्वरीय स्वरूप का ज्ञान, वास्तविक सत्य का ज्ञान ही ज्ञानयोग का लक्ष्य है। ज्ञान-योग की प्रशंसा में, भगवद्गीता बताती है:
श्रीकृष्ण बड़े स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि “हे पार्थ, जैसे प्रज्जुवलित अग्नि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है।
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र, निःसंदेह कुछ भी नहीं हैं। योग के द्वारा सिद्धि को प्राप्त कर मनुष्य उस ज्ञान को अपने आप ही यथा समय अपनी आत्मा में पा लेता है।”
कर्म योग:
कर्म शब्द का अर्थ "क्रिया या कार्य" से है, श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। कर्म योग ऐसे कर्म का पालन है जो मुक्ति की ओर ले जाता है। कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो, नि: स्वार्थ होकर कर्म करो। एक कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है कि उसे नि: स्वार्थ भाव से कर्म करना अच्छा लगता है। उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता। वह प्रशंसा या दोष के प्रति उदासीन है। उसका अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण होता है।
लय-योग:
लय-योग शब्द में लय का अर्थ है मन पर नियंत्रण से है। लय योग, तदनुसार योग का वह मार्ग जो मुख्य रूप से चिंतित, मन पर नियंत्रण हासिल करना तथा विशेष रूप से इच्छा-शक्ति पर महारत हासिल करना सिखाता है। प्राणायाम या हठ-योग तकनीकों में महारत हासिल करने के बाद ही लय-योग सीखा जाता है। लय-योग के अंतर्गत भक्ति-योग, शक्ति-योग, मंत्र योग और तंत्र-योग आते है।
भक्ति-योग :
भक्ति-योग में भक्ति शब्द जड़ भज से आता है, जिसका अर्थ है प्रेम, पूजा या आराधना। यह योग भावनाप्रधान और प्रेमी प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए उपयोगी है। इस योग में ईश्वर या गुरु के प्रति गहन प्रेम और श्रद्धा का भाव शामिल है।
शक्ति-योग :
शक्ति-योग के माध्यम से, एक योगी अपने शरीर और मन पर नियंत्रण को प्राप्त करता है तथा अपने अंदर की निष्क्रिय शक्तियों को जागृत करने की कोशिश करता है।
मंत्र योग :
मंत्र योग की साधना कोई श्रद्धा पूर्वक व निर्भयता पूर्वक कर सकता है। इसमें शब्दों या ध्वनियों का समावेश होता है।
हठ योग:
हठ-योग को राज-योग से पहले सीखा जाता है। हठयोग में प्रसुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर नाड़ी मार्ग से ऊपर उठाने का प्रयास किया जाता है। हठयोग प्रदीपिका और शास्त्रीय ग्रंथ घेरण्ड संहिता इसके प्रमुख ग्रंथ हैं। इन दोनों में ही आसन, प्राणायाम, आदि के सटीक विवरण और उनसे प्राप्त होने वाले लाभ बताये गये हैं। हठयोग शब्द ह और ठ को मिलाकर बनाया हुआ शब्द है। इसमें ह से पिंगला नाड़ी दहिनी नासिका (सूर्य स्वर) तथा ठ से इड़ा नाडी बाई नासिका (चन्द्रस्वर) संबंधित होते है।
राज योग:
राज-योग शब्द में, राज का अर्थ 'सर्वश्रेष्ठ' या 'उच्चतम' होता है। इसलिए, राज-योग का अर्थ सर्वोत्तम योग है। इस योग से योगी को आत्म-साक्षात्कार और वास्तविकता के ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके आठ घटक होते हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके आलावा राज योग में हठ योग भी शामिल होता है। इसका वर्णन पतंजलि ने अपने योग सूत्रों में किया है। हठ योग और राज-योग इतने सहज रूप से जुड़े हुए हैं कि वे एक दूसरे का भाग हैं। हठ योग के माध्यम से राज योग के मार्ग पर आगे बढ़ा जा सकता है।
संदर्भ:
1. Jaggi, O.P. (1979). Yogic And Tantric Medicine. Atma Ram And Sons.
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