लखनऊ शहर अपने समृद्ध इतिहास संस्कृति और विरासत के कारण विश्व प्रसिद्ध है, यदि यहां कला की बात की जाए, तो इसमें भी लखनऊ शहर पीछे नहीं है, यहां की चिकन कढ़ाई, ज़रदोज़ी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। लखनऊ की एक और अद्भूत कला है चिनहट मृद्भाण्ड जो लखनऊ शहर की स्थानीय और परिष्कृत कला है। यह मृद्भाण्ड मुख्य रूप से चिनहट क्षेत्र (पूर्वी लखनऊ) में बनाए जाते हैं। इस कला ने अपनी खूबसूरती और रचनात्मकता के कारण इस क्षेत्र को विशेष स्थान दिलाया। लखनऊ शहर कला और शिल्प विज्ञान के युग में कलात्कता का प्रमुख केंद्र रहा है, चिनहट कला मात्र कला ही नहीं वरन् कई कुम्हारों की आय का एकमात्र साधन भी है।
मुगलों के शासन के साथ ही लखनऊ में मृद्भाण्ड बनाने की कला फली-फूली। यहां चिनहट कला मुख्यतः पॉलिशदार टेराकोटा और मिट्टी के बर्तनों की श्रेणी में आती हैं, जिसमें फूलदान, मूर्तियां, फूल-पत्ती के डिज़ाइन की प्लेट, मग, कटोरे, पतीले, सजावट सामग्री इत्यादि शामिल हैं। इसे तैयार करने हेतु मिट्टी (लाल, पीली, काली आदि), कुम्हार के उपकरण, सरसों का तेल, गोंद, स्टार्च, मोम, चिकनी मिट्टी, काष्ठ, चावल की भूसी इत्यादि की आवश्यकता होती है। कुम्हार द्वारा वांछित आकृति को पहिये द्वारा ढाला जाता है तथा इन्हें 1180 से 1200 के तापमान पर पकाया जाता है। इसमें कुछ प्रमुख हिस्से जैसे हेंडल इत्यादि को अलग से तैयार करके जोड़ा जाता है। चिनहट के बर्तन प्रायः भूरे रंग के होते हैं, जिनमें सफेद और क्रीम रंग के डिजाइन बनाये जाते हैं। जिनमें सामान्यतः ज्यामितीय आकृति भी देखने को मिलती है। ये मृद्भाण्ड इस क्षेत्र की निशानी के तौर पर भी खरीदी जानी वाली वस्तु हैं।
मिट्टी के बर्तन बनाने की कला बहुत पुरानी है या कहें सभ्यताओं के साथ ही जन्मी है, इसके साक्ष्य हम हड़प्पा सभ्यता के मृद्भाण्ड के अवशेषों में देख सकते हैं। जिसने मानवीय विकास के साथ लम्बा सफर तय किया है। औद्योगिक युग में अब इस कला को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, सरकार द्वारा इसके महत्व को ध्यान में रखते हुए इसे एक व्यवसाय और रोजगार के रूप में बढ़ावा देने के लिए, 1957 राज्य योजना विभाग के योजना अनुसंधान और कार्य संस्थान द्वारा पायलट परियोजना लागू की गयी। जिसमें युवाओं को इसका प्रशिक्षण देकर एक उद्योग के रूप में बढ़ावा देने का उद्देश्य रखा गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने शिल्प उद्योग को बढ़ावा देने के लिए चिनहट में भट्टी भी लगायी। जिसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले किंतु यह ज्यादा लम्बे समय तक ना चल सका 1997 में उद्यम में बढ़ते घाटे को देख इस परियोजना को बंद कर दिया गया तथा इसे पुनर्जीवित करने के कोई प्रयास भी नहीं किये गये।
चीनी सस्ते उत्पादों और प्लास्टिक के बर्तनों ने मिट्टी के बर्तन के व्यसाय को समाप्त कर दिया है। इस उद्योग को जीवित रखने या बढ़ाने के उद्देश्य से चिनहट कला के शिल्पकार अपने मिट्टी के बर्तनों में सुधार करने का प्रयास कर रहे हैं साथ ही महिलाएं भी इन्हें नये-नये डिजाइनों से सजा रही हैं। यह उद्योग भले पतन के कगार पर हो किंतु स्थानीय लोगों ने अभी भी आशा नहीं छोड़ी है। कुछ चिनहट कुम्हारों के व्यापारी फेसबुक और कई ऐसी ऑनलाइन प्लेटफार्म (online patform) के मदद से अपने नए डिज़ाइन के मिटटी के बर्तन को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं और वह काफी हद तक इसमें कामियाब भी हुए हैं।
हम आम नागरिकों को भी अपने देश के इस अद्भुत कला को बढ़ावा देना चाहिए और प्लास्टिक या अन्य देशों से आयातित बर्तनों का परित्याग कर अपने देश में बनी बर्तनों को खरीदना चाहिए नहीं तो एक दिन यह कला पूरी तरह विलुप्त हो जायेगी।
संदर्भ:
1.http://www.lucknowpulse.com/2015/06/01/chinhat-pottery-making/
2.http://www.craftclustersofindia.in/site/index.aspx?Clid=170
3.https://bit.ly/2T0qHEN
4.https://bit.ly/2PLASeo
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