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प्रकृति में आज असंख्य वनस्पति पायी जाती हैं जिनमें से कुछ ज्ञात हैं तो कुछ अज्ञात। वनस्पतियां सृष्टि का वह अभिन्न अंग हैं जिनके बिना जीव-जगत की कल्पना करना भी असंभव है। यही कारण है कि प्राणी जगत का वनस्पतियों से गहन संबन्ध रहा है। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव प्रारंभ से ही इसके महत्व को समझता हुआ आ रहा है। इन वनस्पतियों में रंग-रूप, आकार, प्रकृति की भिन्नता के साथ साथ इनकी उपयोगिता में भी भिन्नता देखी जाती है। जिसका सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान हमें वनस्पति विज्ञान से प्राप्त होता है। जो वनस्तपति (खाद्य, औषधीय, वाणिज्यिक पादप) प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य से जुड़ी होती हैं, उन्हें आर्थिक वनस्पति विज्ञान के अंतर्गत रखा जाता है। संसार में ऐसी अनगिनत आर्थिक वनस्पतियां हैं, जो इस सृष्टि के समाप्त होने तक हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती रहेंगी। इनकी आवश्यकताओं और महत्व को ध्यान में रखते हुए विज्ञान जगत ने इन पर गहनता से अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया।
वनस्पति विज्ञान की उत्पत्ति प्रारंभ में औषधीय चिकित्सा को प्रबल बनाने के लिए की गयी थी। उस दौरान पेड़ पौधे औषधीय दृष्टि से अत्यंत मूल्यवान हो गये। वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में जाकर वनस्पतियों की अलग-अलग प्रजाति खोजना प्रारंभ कर दिया। औपनिवेशिक काल के दौरान तीव्रता से बढ़ते मसाले के व्यापार ने तत्कालीन आर्थिक जगत पर बहुत प्रभाव डाला, जिस कारण यह कई यूरोपीय देशों के लिए चिंता का विषय भी बन गया था। अन्वेषण और अविष्कार के युग में स्पेनिश शोधकर्ता वनस्पतियों में अध्ययन करने में व्यस्त थे, यह वे विज्ञान की दृष्टि से नहीं वरन् अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर करने तथा मसाले व्यापार में अपनी क्षमता को विकसित करने के लिए कर रहे थे, जो 16वीं से 17वीं शताब्दी के दौरान पुर्तगालियों के नियंत्रण में था। प्रत्येक शक्तिशाली शासक मसालों के व्यापार में नियंत्रण हासिल करना चाहता था। वास्तव में इनका आयात निर्यात 10वीं से 14वीं शताब्दी से मध्य इस्लामिक साम्राज्य द्वारा प्रारंभ कर दिया गया था।
17वीं शताब्दी में यूरोपीय लोग अवगत हुए भारतीय मसालों से जिसने इन्हें अत्यंत प्रभावित किया। जब इन्होंने भारत में प्रवेश किया तो इनके समक्ष आर्थिक वनस्पति की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध राष्ट्र खड़ा था। मसालों के बाद बारी आई कपास, और फिर चाय और फिर अफीम आदि की। यूरोपीय व्यापारियों ने भारत की इस प्राकृतिक संपदा को अप्रत्याशित रूप से लूटा। 19वीं शताब्दी में यूरोपीय वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने विभन्न प्रजातियों के मध्य संबंध को समझने के लिए क्रमिक विकास का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। हालांकि डार्विन कभी एशिया नहीं आये किंतु इनके सबसे बड़े सहयोगी जोसेफ डाल्टन हूकर ने एक पादप खोजकर्ता/संग्रहकर्ता के रूप में भारत तथा अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में काफी समय व्यतीत किया। इन्होंने विश्व भर से 11,000 से भी अधिक पौधों/प्राकृतिक संसाधनों को वैज्ञानिक दृष्टि से एकत्रित कर उन्हें वर्गीकृत किया। इनके द्वारा संपूर्ण संग्रह लंदन के केव गार्डन में किया गया, जो स्वयं इनके द्वारा ही स्थापित किया गया था।
यहां आज भी आर्थिक वनस्पति का बड़े पैमाने पर संग्रह किया गया है, साथ ही इनसे निर्मित लगभग 1,00,000 साम्रग्रियां (चीनी पारंपरिक औषधियां, मिश्र की कलाकृतियां, छाल के वस्त्र, टोकरी, खाद्य सामग्री, वन्य सामग्री इत्यादि) भी यहां संग्रहित की गयी हैं। केव गार्डन में वर्तमान समय में मुख्य रूप से वनस्पति विज्ञान औषधियों और पौधों का इतिहास, विज्ञान और अन्वेषण, कला और शिल्प इत्यादि में शोध किये जा रहे हैं, जिसके लिए विभिन्न प्रकार की आधुनिक तकनीकों का सहारा लिया जाता है। इस दौरान यूरोप में अन्य संग्रहालय भी बनाये गये जहां अन्य प्राकृतिक संसाधनों के साथ आर्थिक वनस्पतियों का भी संग्रह किया गया। इन संग्रहित वस्तुओं के माध्यम से तत्कालीन भौगोलिक और आर्थिक स्थितियों के साथ-साथ इनके उपयोगों को जानने में भी सहायता मिलती है।
अमेरिका ने अकेले ही वनस्पति विज्ञान के अध्ययन में 95 अरब डॉलर खर्च किये। जिसमें इन्होंने अनेक बहुमुल्य औषधीय पौधे जैसे- एफेड्रा (Ephedra), एकीनेशिया (Echinacea), अमेरिकी जिनसेंग (ginseng), अंगूर के बीजों का रस आदि का अध्ययन किया। भारत प्रारंभ से ही आर्थिक वनस्पति की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध राष्ट्र रहा है। इसके आयात निर्यात पर विशेष ध्यान दिया गया, लेकिन इसके अध्ययन के लिए कोई विशेष कदम नहीं उठाये गये। हालांकि वैदिक कालीन भारत में पारंपरिक रूप से औषधीय पौधों का अध्ययन (आयुर्वेद) किया गया था। भारत कृषिप्रधान (70%) देश है फिर भी वनस्पति विज्ञान पर कोई विशेष शोध नहीं किया जाता है। भारत में वनस्पतियां आर्थिक जगत को ही नहीं वरन् भौतिक जगत को भी प्रभावित करती हैं। हिन्दू धर्म में हम रोज़ाना होने वाले धार्मिक क्रियाकलापों में भी इसका उपयोग देख सकते हैं। वनस्पतियों का प्रभाव हमारे साहित्य में भी देखने को मिलता है, किंतु प्राचीन भारत में वनस्पति विज्ञान में आर्थिक दृष्टि से अध्ययन के प्रति कोई रुचि स्पष्ट नहीं झलकती है।
संदर्भ:
1.https://en.wikipedia.org/wiki/Economic_botany
2.http://www.marknesbitt.org.uk/uploads/1/7/7/1/17711127/nesbitt_cornish_jme29.pdf
3.http://dspace.wbpublibnet.gov.in:8080/xmlui/handle/10689/14605
4.https://www.kew.org/science/collections/economic-botany-collection