पाश्‍चात्‍य कला का समृद्ध सफर और आज कला के प्रति उदासीन होते लोग

लखनऊ

 24-11-2018 04:27 PM
म्रिदभाण्ड से काँच व आभूषण

कला शब्‍द को यदि देखा जाए तो यह मात्र दो वर्णों का योग है, किंतु इसकी व्‍यापकता का वर्णन आज तक कोई नहीं कर पाया है। कला का विकास मानव जाति के विकास के साथ होता रहा है, जिसमें सर्वप्रमुख है चित्रकला, जिसके साक्ष्‍य हमें पाषाण कालीन गुफाओं से प्राप्‍त होते हैं अर्थात् मानव ने जब घरों में रहना भी प्रारंभ नहीं किया था, उससे भी पूर्व से वह चित्रकारी करने लगा था। विश्‍व के विभिन्‍न हिस्‍सों में कला के भिन्‍न-भिन्‍न स्‍वरूप (स्थापत्य कला, मूर्तिकला, चित्रकला, काव्य आदि) देखने को मिलते हैं, जिनका एक दूसरे पर प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष प्रभाव पड़ा है। ऐसी ही एक समृद्ध कला है- पाश्‍चात्‍य दृश्‍य कला, इसका इतिहास अत्‍यंत प्राचीन है, पाषाण कालीन युग में यूरोप के जिस भी भाग में मनुष्‍य रहे उन्‍होंने गुफाओं, विशालकाय पत्‍थरों में नक्‍काशी और चित्रों के माध्‍यम से अपने होने के साक्ष्‍य छोड़ दिये।

अब तक मिले विभिन्‍न कलाओं के साक्ष्‍यों में दृश्‍य कला का एक क्रमिक विकास (भित्ति चित्र, मूर्तिकला, भवनों पर नक्‍काशी, चित्रकला आदि) देखने को मिलता है। हालांकि यूरोपीय कला का परिष्‍कृत रूप यूनानी कला के प्रभाव से सामने आया, जो वास्‍तव में रोम साम्राज्‍य द्वारा अपनायी गयी थी। जिसने संपूर्ण यूरोप, उत्‍तरी अफ्रीका, मध्‍य पूर्वी साम्राज्‍य में अपना प्रभाव डाला। यूरोपीय कला में क्रमिक विकास के साथ विभिन्‍न शैलियों क्‍लासिकल (Classical) या शास्‍त्रीय, बीजान्टिन (Byzantine), मध्ययुगीन, गोथिक, पुनर्जागरण, बारोक (Baroque), रोकोको (Rococo), न्‍योक्‍लासिकल (Neoclassical), आधुनिक, उत्‍तर आधुनिक का जन्‍म हुआ। जिसके स्‍वरूप में धीरे धीरे परिवर्तन आता गया। इसका क्रमिक विकास कुछ इस प्रकार है :

प्रागैतिहासिक कला :

प्रागैतिहासिक काल जिसकी अधिकांश जानकारी हमें मूर्तियों और चित्रों के माध्‍यम से ही मिलती है। इसे प्रमुखतः चार भागों में विभाजित किया गया है- पाषाण काल, नवपाषाण काल, कांस्‍य युग और लौह युग। यूरोपीय सांस्‍कृतिक विरासत में प्रागैतिहासिक कला (भित्ति चित्र, कलाकृतियां, मुर्तियां) का महत्‍वपूर्ण स्‍थान रहा है। यूरोप में सबसे प्राचीन (लगभग 40,800 वर्ष पूरानी) भित्ति चित्र के साक्ष्‍य स्‍पेन की ऐल कैस्टिलो गुफा (El Castillo Cave) से मिले हैं तथा यहां अन्‍य शैल चित्रों को भी खोजा गया जो मौसम के प्रभाव से बच गये थें। यहां (यूरोप में) 24,000-22,000 ईसापूर्व के मध्‍य में बनाई गयी छोटी आकृति की मूर्तियां तथा लगभग 11,000 ईसापूर्व की नक्‍काशीदार हड्डियां प्राप्‍त हुयीं। मध्‍ययुग तक आते-आते यहां मुर्तियों का प्रचलन कम हो गया था। यूरोप की सेल्टिक कला प्रमुखतः प्रागैतिहासिक काल के लौह युग से आयी है। जो रोमन साम्राज्‍य के दौरान विलुप्‍त हो गयी, किंतु ब्रिटिश क्षेत्र में सूक्ष्‍म मात्रा में इसका उपयोग किया जाता रहा था तथा ईसाई धर्म के आगमन के साथ ही यह कला पुनःजीवित हो गयी थी।

प्राचीन क्‍लासिकल कला :

3650-1100 के मध्‍य यूरोप में प्रचलित मिनोआई संस्‍कृति को यूरोप में प्राचीन सभ्‍यताओं में गिना जाता है जिसे विशेषतः चार भागों में विभाजित किया गया है - प्रिपेलेटियल (Prepalatial), प्रोटोपेलेटियल (Protopalatial), न्‍योपेलेटियल (Neopalatial) और पोस्‍टपेलेटियल (Postpalatial)। वर्तमान समय में पाषाण काल की अपेक्षा इस काल की कलाकृतियों और मिट्टी के बर्तनों के अवशेष बड़ी मात्रा में उपलब्‍ध हैं। मिनोआई सभ्‍यता के लोग धातुओं की मुर्तियां तैयार करने में पारंगत थे, किंतु इस दौरान तैयार की गयी मूर्तियां आज बड़ी मात्रा में उपलब्‍ध नहीं है। न्‍योपेलेटियल काल की क्रेटन सभ्‍यता की दृष्टि से अत्‍यंत समृद्ध थी। यहां खास से आम स्‍थानों (जैसे-महलों, मनोंरंजन घरों) पर कलाकृति का उत्‍कृष्‍ट स्‍वरूप देखने को मिलता है। प्रोटोपेलेटियल काल की कलाकृति‍यों का संग्रह आज क्रेटन (Cretan) संग्रहालयों में संरक्षित किया गया है।

प्राचीन यूनानी सभ्‍यता शास्‍त्रीय कला की दृष्टि से चित्रकारी (मिट्टी के बर्तन, फूलदान, आदि पर की जाने वाली), मूर्तिकारी और वास्‍तुकार के लिए बहुत संपन्‍न थी, जिसका उपयोग आज तक देखने को मिलता है। यूनानी कला नें रोमन चित्रकला, मूर्तिकला को बड़ी मात्रा में प्रभावित किया। हालांकि इटली में स्‍थानीय कला इट्रस्केन (Etruscan) का प्रभाव रहा। इस दौरान उच्‍च वर्गों और देवताओं की मूर्ती तैयार करने तथा दिवारों पर चित्रकारी करने का प्रचलन बढ़ गया था। रोमन सभ्‍यता के पतन के साथ मानवाकृतियों के निर्माण में कमी आयी।

मध्‍यकालीन कला (छठवीं शताब्‍दी से पंद्रहवीं शताब्‍दी तक):

मध्‍यकालीन यूरोप में धर्म का अत्‍यंत प्रभाव था, जिस कारण यूरोप के चर्चों (Churches) नें अपने धर्म से जुड़ी कहानियों, प्रमुख पात्रों, देवी-देवताओं, विशेष घटनओं को वास्‍तुकला, चित्रकारी, मूर्तिकारी आदि के माध्‍यम से यहां संजोया। जिसका प्रमुख उद्देश्‍य धार्मिक संदेशों को प्रसारित करना था। बीजान्टिन कला (843-1453) मध्‍ययुग की श्रेष्‍ठ कलाओं में से थी। प्रारंभिक मध्‍यकाल में कलाओं का स्‍थानांतरण भी बढ़ा, जिससे विभिन्‍न कलाओं के आदान प्रदान से नई कलाओं का इजात हुआ। श्रेष्‍ठ और उत्‍कृष्‍ट कला का एक स्‍वरूप गोथिक कला के उद्भव में रोमन कला का महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। इस दौरान बड़ी मूर्तियों का निर्माण किया जाने लगा तथा वास्‍तुकला और मूर्तिकला का परिष्‍कृत रूप सामने आया। गोथिक वास्‍तव में एक वास्‍तुकला का स्‍वरूप था किंतु 1200 के दौरान गौथिक पैंटिग भी बनाई जाने लगी। गोथिक कला 13वीं शताब्‍दी तक संपूर्ण यूरोप में फैल गयी थी बाद में यही कला स्‍थान स्‍थान पर पुनर्जागरण कला में विलीन हो गयी। पुनर्जागरण के दौरान ही आगमन हुआ प्रिंट मीडिया का।

पुनर्जागरण कला (Renaissance Art) :

यह कला यूनानी और रोमन कला का मिश्रित स्‍वरूप है, जिसकी चित्रकला और मूर्तिकला में तकनीकी परिवर्तन के साथ विषय वस्‍तु में भी परिवर्तन किये गये। ईटली से प्रारंभ हुयी यह कला धर्मनिरपेक्ष थी तथा इस दौरान के चित्रकार (लियनार्डो द विंची) और मूर्तिकारों नें समाज को यथार्थवाद की ओर लाने का प्रयास किया, जिसमें मानवीय स्‍वरूप, व्‍यक्तिगत अभिव्यक्ति, मानवीय भावनाओं आदि पर ध्‍यान केंद्रित किया गया। पुनर्जागरण कला में पक्‍के और उत्‍कृष्‍ट रंगों के लिए ऑयल पेंट्स का प्रयोग बढ़ गया।

मैनरिज्‍़म, बारोक, और रोकोको

16वीं शताब्‍दी में तैयार मैनरिज्‍़म चित्रकारी में आदर्शवाद के स्‍थान पर भावनाओं को महत्‍व दिया गया। बारोक कला में पुनर्जागरण के प्रस्‍तुतीवाद पर बल दिया गया, इसमें सौंदर्य की खोज, आंदोलन और नाटक आदि के चित्र तैयार किये गये। प्रसिद्ध बारोक (17वीं शताब्‍दी तथा 18वीं शताब्‍दी का प्रारंभिक दौर) चित्रकार कारावाग्गियो, रेम्ब्रांट,पीटर पॉल रूबेंस और डिएगो वेलाज़्यूज़ हैं। रोमन कैथोलिक चर्च के आध्‍यात्‍मिक जीवन के पुनरूद्धार के रूप में बारोक कला को देखा गया। इस कला में धार्मिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी ध्‍यान दिया गया। बारोक कला को काफी हद तक पुनर्जागरण के समांतर माना गया था। 18वीं सदी में बारोक कला पतन के कगार पर आ गयी थी तथा यहीं से फ्रांस में रोकोको कला का जन्‍म हुआ। यह बारोक का ही विस्‍तृत स्‍वरूप थी किंतु यह चंचल प्रवृत्ति की थी। बारोक कला में चमकीले और पक्‍के रंगों का उपयोग किया गया, जबकि रोकोको में पीले, क्रीमियर (creamier) रंगों का उपयोग किया गया। बारोक की तुलना में रोकोको कला में हल्‍के विषयों (प्रकृति प्रशंसा, रोमांस, उत्‍सव आदि) पर ध्‍यान केंद्रि‍त किया गया था।

न्‍योक्‍लासिज्‍़म, रोमांटिकवाद, अकादमिकता और यथार्थवाद

वास्‍तव में न्‍योक्‍लासिज्‍़म रोकोक विरोधी आंदोलन था, जिसने प्राचीन शास्‍त्रीय कला, यूनानी और रोमन कला पर जोर दिया तथा पवित्रता की और लौटने की इच्‍छा जागृत की। इसमें भी पुनर्जागरण का प्रभाव देखने को मिला। न्‍योक्‍लासिज्‍़म आन्‍दोलन ने सत्‍यता, ज्ञान और आदर्शवाद को प्रमुखता दी। किंतु रोमांटिकवाद ने इनके आदर्शवाद और ज्ञान को अस्‍वीकार कर दिया तथा इसने भावना और प्रकृति पर ध्‍यान केंद्रित किया। इसमें भावनात्‍मक रंगों का ही प्रयोग किया गया था। न्‍योक्‍लासिज्‍़म औरा रोमांटिकवाद कला का संयुक्‍त रूप अकादमिक कहलाया। 19वीं शताब्‍दी में यूरोप में औद्योगीकरण के पश्‍चात ग‍रीब और मजदूर वर्ग को संघर्षों का सामना करना पड़ा, जिसने कला जगत में यथार्थवाद को जन्‍म दिया। जिसमें समाज के वास्‍तविक स्‍वरूप को चित्रित किया गया था।

आधुनिक कला:

यथार्थवाद के बाद प्रभाववाद और उत्‍तर प्रभाववाद तथा फाउविज्‍़म (Fauvism) का जन्‍म हुआ। फाउविज्‍़म को पहली आधुनिक शैली माना गया। प्रभाववादियों नें चित्रों में प्रकाश का उपयोग किया तो वहीं फाउवादियों नें अपने केनवॉस को चमकदार और भड़कीले रंगों का प्रयोग किया। फाउ वादियों का उद्देश्‍य कार्य के माध्‍यम से भावनाओं को विकसित करने का प्रयास किया साथ ही इन्‍होंने प्रोद्योगिकी और विचारों से समाज में होने वाले तीव्र परिवर्तन को उजागर किया।

समकालीन कला और आधुनिक कला :

कला में आधुनिकता का आगमन 1960 में हुआ, यह मुख्‍यतः गतिविधियों और मूल्‍यों पर आधारित थी। जबकि उत्‍तर आधुनिक कला में पिछले सभी कला आन्‍दोलनों का स्‍वरूप देखने को मिलता है।

उपरोक्‍त विवरण से आपको ज्ञात हो ही गया होगा कि आधुनिक पाश्‍चात्‍य कला शैली को कितने पड़ावों से होकर गुजरना पड़ा। जिसने मानव जीवन पर प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष रूप से प्रभाव डाला। पश्चिमी चित्रकारों ने मात्र अपने क्षेत्र में ही नहीं वरन् विश्‍व के अन्‍य भागों में जाकर वहां के यथार्थ स्‍वरूप को अपने चित्रों में उकेरा। कैमरे के अविष्‍कार से पूर्व विभिन्‍न पाश्‍चात्‍य चित्रकार भारत आये उनमें से एक थे जोहन ज़ोफनी। 1700-1850 के मध्‍य लखनऊ शहर भी इन चित्रकारों के लिए आकर्षण का केंद्र था। जबकि लखनऊ में आज लोग कला के प्रति उदासीन नजर आ रहे हैं। ललित कला अकादमिक के अध्‍यक्ष लाल जी अ‍हीर बताते हैं कि लखनऊ में प्रतिवर्ष तीस प्रदर्शनियां होती हैं, जहां 10 चित्र भी मुश्‍किल से बिक पाती हैं।

जबकि लोग दिल्‍ली और मुंबई की प्रदर्शनी से पेंटिंग खरीदना पसंद करते हैं अर्थात स्‍थानीय कलाकारों को इनके द्वारा किसी प्रकार का प्रोत्‍साहन नहीं दिया जाता है। अनुराग दिदवानिया द्वारा स्‍थानीय कलाकारों को प्रोत्‍साहन देने के लिए " कला स्‍त्रोत आर्ट गैलरी और आर्ट सेंटर " खोला गया है। यहां पर भी दर्शकों नें प्रशंसा तो की किंतु पेंटिंग नहीं खरीदी जबकि इन चित्रकलाओं कि कीमत काफी कम होती है (रु 5000-10000) । यदि यही स्‍थ‍िति बनी रही तो आने वाले समय में स्‍थानीय कला कहीं विलुप्‍त हो जाऐगी।

संदर्भ :

1. https://en.wikipedia.org/wiki/Art_of_Europe
2. https://timesofindia.indiatimes.com/city/lucknow/Lucknows-art-just-for-arts-sake/articleshow/42092207.cms



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