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आज आपको बाजार में वस्त्रों के अनगिनत स्वरूप देखने को मिलते हैं। जिनके रंग-रूप, प्रकृति में भिन्नता देखने को मिलती है। इनमें से एक विचित्र वस्त्र है मलमल या मसलिन। आपने माचिस के डिब्बे में पैक साड़ी या अंगूठी से निकल जाने वाली साड़ी के विषय में अवश्य सुना होगा, यह अद्भूत साड़ी भी मलमल से तैयार की जाती है। मसलिन शब्द की उत्पत्ति सामान्यतः मोसूल (इराक) के कपास व्यवसाय से मानी जाती है, यूरोप में इसे मसलिन तथा भारत और बांग्लादेश में मलमल के नाम से जाना जाता है। यदि इतिहास देखा जाए तो औपनिवेशिक काल तक भारतीय वस्त्र विश्व में एक अभुतपूर्व छाप छोड़ चूका था, विशेषतः ढाका (बांग्लादेश) का मलमल, यह शाही घरानों तक का प्रतीक बन गया था।
आजादी से पूर्व ढाका भारतीय उपमहाद्वीप का अंग था, आजादी के बाद पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बना तथा 1971 के युद्ध के बाद स्वतंत्र राष्ट्र बांगलादेश की राजधानी बना। सूती के महीन धागों से तैयार ढाका का मलमल विश्व के विभिन्न भागों तक निर्यात (Export) किया जाता था। 8वीं शताब्दी में ढाका का सूती वस्त्र अरब तथा आगे चलकर चीन, जावा तक पहुंचा। अरब के प्रसिद्ध लेखक और विद्वान इब्न बतूता ने इसे बहुत मूल्यवान वस्तु के रूप में इंगित किया। वे लिखते हैं दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने चीन के युआन सम्राज्य में पांच प्रकार के वस्त्र उपहार स्वरूप भेजे जिनमें से चार बांगाल के थे। जिन्हें इब्न बतूता ने चार नाम - बयरामी, सलाहिया, शिरिनबफ और शानबाफ दिये।
मुगल साम्राज्य भी इस वस्त्र की खूबसूरती से अछुता ना रह सका। मुगलों के साथ भारत में वस्त्रों पर होने वाली विभिन्न कढ़ाई का प्रवेश हुआ, जो इनके द्वारा मलमल पर भी की गयी। लखनऊ की प्रसिद्ध पारंपरिक चिकन कढ़ाई भी मुगलों द्वारा प्रारंभ की गयी। यह अत्यंत बारिकी का काम है, जिसे विशेषतः महीन वस्त्रों जैसे-कपास, जॉर्जेट, शिफॉन आदि पर ही किया जाता है। इस कढ़ाई का वर्णण ग्रीक यात्री मैगस्थनीज द्वारा भी किया गया है। आज इस कढ़ाई के विभिन्न स्वरूप देखने को मिलते हैं जैसे - पाश्नी, बखिया, खताओ, गिट्टी, जंगीरा आदि। 20 वीं शताब्दी में यह कढ़ाई विश्व के अनेक भागों में फैली।
बंगाल में निर्मित होने वाले महीन धागों के पीछे वहां के कपास की महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह कपास अन्य क्षेत्र में उत्पादित होने वाले कपास से भिन्न था। इसके तंतु मेघना नदी के जल में फूलकर विघटित हो जाते थे। यह रिबन के रूप में मजबूत और अधिक तनाव झेल सकता था। मलमल को तैयार करने के लिए विभिन्न उपकरणों का उपयोग किया जाता था तथा इसे तैयार करने के लिए आद्रता की आवश्यकता होती थी। इसलिए इसका कार्य स्थानीय महिलाओं द्वारा नमी वाले स्थान में किया जाता था।
ब्रिटिशों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए अर्थात अपने देश में तैयार वस्त्रों को भारत में बेचने के लिए, यहां के स्थानीय बुनकरों का व्यवसाय ही समाप्त कर दिया। कहा जाता है कि यहां के बुनकरों को मलमल बनाने से रोकने के लिए उनके अंगूठे तक काट दिये जाते थे। इस प्रकार के क्रिया-कलापों ने मलमल के व्यवसाय पर बहुत विपरित प्रभाव डाला, परिणामस्वरूप ढाका के मलमल का अस्तित्व कहीं खोने लगा।
मलमल के गौरवशाली इतिहास और इसके महत्व को यहां के आम जन के मन में जीवित रखने के लिये बांग्लादेश में मसलिन पर्व का आयोजन किया जाता है। आज मसलिन लोगों के मध्य हल्का, जालीदार, मशीनों में निर्मित कपास के वस्त्र के रूप में जाना जाता है, जो कभी विश्व प्रसिद्ध हस्तनिर्मित वस्त्र हुआ करता था।
संदर्भ:
1.https://www.aramcoworld.com/en-US/Articles/May-2016/Our-Story-of-Dhaka-Muslin
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Muslin
3.http://www.indianmirror.com/culture/indian-specialties/Chikankari.html