क्यों होते हैं सभी ट्रैफिक सिग्‍नल में यही तीन रंग?

लखनऊ

 26-09-2018 01:40 PM
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला

वर्तमान समय में ट्रैफिक सिग्‍नल (Traffic Signal) का हमारी ज़िंदगी से एक ऐसा रिश्ता बन गया है कि कोई मिले न मिले लेकिन ट्रैफिक सिग्‍नल से हमारी मुलाकात दिन भर में न जाने कितनी बार होती है। कई लोग इसे अच्छे से फॉलो करते हैं तो कुछ लोग इसे नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। ट्रैफिक सिग्‍नल पर हर जगह इन तीन रंगो (लाल, पीला, हरा) का ही उपयोग होता है फिर चाहे वो भारत हो या फिर विदेश, हर जगह इन्हीं तीन रंगो का इस्तेमाल होता है। लेकिन क्‍या आपने कभी यह जानने की कोशिश की है कि आखिर क्यों हम लाल बत्ती जलने पर रुक जाते हैं और हरी पर चलते हैं और पीली पर अक्सर गाड़िया धीमी हो जाती हैं, और सिग्‍नल पर प्रयोग किये जाने वाले इन तीनों रंगों के इस क्रम के पीछे क्‍या कारण है? शायद नहीं।

इस सवाल का जबाव जानने से पहले हम आपको बता दें कि दुनिया में सबसे पहला ट्रैफिक सिग्नल सन 1868 को लंदन के पार्लियामेंट के पास लगाया गया था। इस लाईट को उस समय रेलवे के एक अभियंता जॉन पीक नाईट ने लगाया था। इस सिग्नल में दिन के समय एक लोहे का हाथ ऊपर और नीचे होकर इशारा करता था। रात में इसके न दिख पाने के कारण कोई ज़रिया चाहिए था सिग्नल को देखने योग्य बनाने का। सबसे आसान था रेलवे सिग्नल में प्रयोग हो रही लाल और हरी बत्ती का प्रयोग करना। परन्तु कुछ ही समय बाद बत्तियों में प्रयोग होने वाली गैस (Gas) के लीक (Leak) होने से एक पुलिस अफसर की मृत्यु हो गयी और इंग्लैंड में इस ट्रैफिक सिग्नल पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

वहीं दूसरी ओर अमेरिका में इसका इस्तेमाल होता रहा परन्तु यातायात को सुचारू रूप से बनाये रखने के लिए एक पुलिसकर्मी को सिग्नल पर खड़ा रहना पड़ता था। सन 1920 में डेट्रॉइट, मिशिगन के एक पुलिसकर्मी, विलियम एल. पॉट्स ने 3 रंगों वाले ट्रैफिक सिग्नल का आविष्कार किया और इसीलिए डेट्रॉइट पहला स्थान बना जहाँ पर तीन रंगों वाली ट्रैफिक लाइट का इस्तेमाल हुआ। परन्तु अभी भी इसे एक अफसर द्वारा बटन के इस्तेमाल से नियंत्रित किया जाता था।

इस समस्या को हल करने के लिए एक विशिष्ट समय अंतराल पर बत्ती को स्वयं से बदलने वाला सिग्नल भी बनाया गया। चार्ल्स एडलर जूनियर नामक एक आविष्कारक को इस समस्या को हल करने का विचार आया, और फिर 1920 के दशक के अंत में “स्वचालित सिग्नल” का आविष्कार किया गया था जो ट्रैफिक के मुताबिक बदला करती थी। हालांकि ऐसे सिग्नल फिलहाल भारत में अधिक प्रयोग में नहीं हैं।

अब बात करते हैं इन सिग्नल में प्रयोग हो रहे रंगों के विषय में। दरअसल, लाल और हरा रंग हम दिन की रोशनी में भी आराम से देख सकते हैं, लेकिन आप बाकी रंगो को नहीं देख सकते हैं या उन्हें देखने में आपको थोड़ी परेशानी होती है। लाल का मतलब खतरा होता है। लाल रंग की एक और ख़ास बात ये है कि सारे रंगों में लाल रंग की वेवलेंथ (Wavelength) सबसे ज्यादा होती है अर्थात लाल रंग को हम काफी दूर से आसानी से देख सकते हैं। रेल गाड़ियों को ‘रुकने’ का संकेत देने के लिए लाल रंग का इस्तेमाल किया जा रहा था। हरे रंग का मतलब पहले ‘सावधान’ हुआ करता था और हरे रंग की वेवलेंथ लाल और पीले रंग के बाद सबसे ज्यादा होती है। रेल गाड़ियों को सावधानी का संकेत देने के लिए पहले हरे रंग का इस्तेमाल किया जाता था और सब कुछ ठीक होने का संकेत देने के लिए सफ़ेद रंग का इस्तेमाल किया जाता था। परंतु कई बार तारों की रौशनी को सब कुछ ठीक होने का संकेत देने वाली सफ़ेद लाइट समझ लिया गया और रेल दुर्घटना हो गयीं और इसके बाद हरे रंग का इस्तेमाल आगे बढ़ने का संकेत देने के लिए किया जाने लगा, और पीले रंग की वेवलेंथ सिर्फ लाल रंग से कम होती है और ये लाल तथा हरे रंग से काफी अलग भी है इसी वजह से पीले रंग का इस्तेमाल ‘सावधान’ रहने का संकेत देने के लिए किया जाता है।

शायद यही वजह है कि इन लाइटों का उपयोग आज ट्रैफिक सिग्‍नल में भी देखा जा सकता है। पहले ये ट्रैफिक लाईट लंबवत/वर्टीकल (Vertical) के बजाय क्षैतिज/हॉरिजॉन्टल (Horizontal) होती थी परंतु कलर ब्लाइंड (वर्णान्धता/Color Blindness) लोगों को सिग्नल पहचानने में परेशानी ना हो इसलिये इन्हें अब ज्यादातर लंबवत और ऊपर से नीचे ज्यादा से कम वेवलेंथ के क्रम में व्यवस्थित किया जाता है, अर्थात शीर्ष पर लाल फिर पीला तथा अंत में हरा रंग होता है। ट्रैफिक सिग्नल में लाल रंग में कुछ नारंगी रंग होता है और हरे रंग में कुछ नीला, जो कलर ब्लाइंड (वर्णान्धता) लोगों को उन्हें अलग अलग पहचाने में सहायता करता है।

संदर्भ:
1.https://www.thrillist.com/cars/nation/traffic-light-colors-history#
2.http://www.todayifoundout.com/index.php/2012/03/the-origin-of-the-green-yellow-and-red-color-scheme-for-traffic-lights/
3.अंग्रेज़ी पुस्तक: Feldman, David. 2008. Imponderables. Reader’s Digest



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