चिकनकारी लखनऊ, भारत से पारंपरिक कढ़ाई शैली है। चिकनकारी का शाब्दिक अनुवादकरें तो इसका अर्थ निकलता है कढ़ाई ह। कहा जाता है कि मुगल सम्राट जहांगीर की पत्नी नूरजहां इसे ईरान से सीख कर आई थीं और एक दूसरी धारणा यह है कि नूरजहां की एक बांदी बिस्मिल्लाह जब दिल्ली से लखनऊ आई तो उसने इस हुनर का प्रदर्शन किया। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। माना जाता है की यह कढ़ाई जयादातर महिलाएं ही करती है। ईरानी कढ़ाई का इतिहास कई साल पुराना है। एक समय था जब यह महान कला तुर्की से अफगानिस्तान तक और भारत से अर्मेनिआ की सीमा तक फैला गई थी। यहीं कारण है कि नवाबी शहर के नाम से मशहूर लखनऊ की प्रमुख विशेषता "चिकनकारी कढ़ाई" में इसका प्रभाव आज भी देखा जाता है। यहां की चिकनकारी भारत में की जाने वाली बेहतरीन और महीन कशीदाकारी का एक प्रकार है, जो दुनिया में प्रसिद्ध है।
हालांकि प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर ये नहीं कहा जा सकता कि ईरान की कढ़ाई की खोज कितने वर्ष पुरानी है। माना जाता है कि ईरान में कढ़ाई की शुरूआत सासानी साम्राज्य (226 ईस्वी से 652 ईस्वी तक शासन करने वाले फारसी राजवंश) से हुई थी। साथ ही साथ बगदाद के बीजान्टिन राजदूत ने 917 ईसवी के दौरान सोने की ईरानी कढ़ाई का वर्णन किया है। मार्को पोलो (जो तेरहवीं शताब्दी में चीन से ईरान तक यात्रा करते थे) ने भी ईरान के पूर्वोत्तर वाले क्षेत्र में महिलाओं द्वारा घर पर की जाने वाली रेशम के फूलों की कढ़ाई का वर्णन किया है।
समय के साथ साथ इस कला ने कई शताब्दियों और शासनों को देखा है, जिसके तहत इसमें कई बदलाव आए। चलिये जानते है इसकी कुछ प्रमुख शैलियों के बारे में।
9वीं शताब्दी में जब अरबों ने यहां पर विजय प्राप्त की, तो उनके साथ ही ईरान में तिराज़ कढ़ाई का भी उद्भव हुआ। यह शाही शासक के कपड़ों में की जाती थी ताकि उनकी प्रतिष्ठा बढ़ सके। इसे एक चेन या श्रृंखला के रूप में में पूरा किया गया था। मध्यकालीन अवधि के दौरान, ईरान में कढ़ाई की दो मुख्य शैलियों प्रमुख रूप से की जाती थी। जिनमें से पहली है मूसाइफ कढ़ाई (Musaif embroidery), ये आमतौर पर पूरे कपड़े पर की जाती थी और डिजाइन मुख्य रूप से प्रकृतिक होते थे। इस प्रकार की कढ़ाई का एक उदाहरण वाशिंगटन डी सी(Washington D.C) के वस्त्र संग्रहालय में देखा जा सकता है। इसका उदाहरण आप नीचे दिए गए चित्र में भी देख सकते हैं।
इसके दूसरा संस्करण को ज़िलेह कहा जाता था। आमतौर पर इसका पैटर्न में रेशम के फूलों की विकर्ण पट्टियां नजर आती थी। नीचे दिया गया चित्र ज़िलेह कढ़ाई को दर्शाता हैं।
फारसियों के द्वारा कि जाने वाली तीसरी कढ़ाई की शैली को "रश्त" कहा जाता था। इसमें फलालैन ऊन के छोटे टूकड़े को एक कपास या ऊन नींव पर एक पैटर्न में सिला जाता था। इसको जोड़ने के लिए चेन, बटन तथा पंखी टांका का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार की कढ़ाई के मौजूदा उदाहरण 17वीं, 18वीं और 19वीं शताब्दी से हैं। इसकी एक झलकी आप नीचे दिए गए चित्र में देख सकते हैं।
ईरान की एक और प्रमुख कढ़ाई "ब्रोकैड" शैली में कई अलग-अलग टांको और तकनीकों का इस्तेमाल किया गया था। कढ़ाई पूरी तरह से चेन टांकों से की जाती थी, और इसे रेशम के धागों से छायांकित रेशम की सतहों को भरने के लिए इस्तेमाल किया गया था। बाद में इसमें सोने और चांदी के धागे का भी उपयोग किया गया। इसका उदाहरण आप नीचे दिए गए चित्र में देख सकते हैं।
फारसी कढ़ाई पर कोई भी चर्चा नीडललेस (Needlelace) कढ़ाई और सफेद रेशम से की जाने वाली कढ़ाई के उल्लेख के बिना पूरा नहीं हो सकती। नीडललेस में सुई और धागे के साथ एक कपड़े की सतह पर लेस को बनाया जाता था। वहीं सफेद रेशम की कढ़ाई में सफेद कपास पर सफेद रेशम में सूक्ष्म डिजाइन बनाया जाता था। आज भी फारसियों द्वारा ये सफेद कढ़ाई कि जाती है।
तो ये थी फारसी कढ़ाई के इतिहास की कुछ प्रमुख शैलियां, ईरान और इराक के कई क्षेत्रों में कढ़ाई अभी भी फारसियों के दैनिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालांकि, समय के साथ इसमें अपनी प्राचीन सुंदरता और कौशल को खो दिया है। इसके बावजूद भी यह कला अपनी प्रतिभा बिखेरने में कामयाब रही है।
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