गीता द्वारा परिभाषित यग्य में बलिदान का अर्थ

लखनऊ

 22-08-2018 03:06 PM
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)

आज हम सभी अपने मुस्लिम भाइयों और बहनों के साथ ईद-उल-अजहा का पर्व मनाने वाले हैं। हम सभी जानते हैं कि ईद-उल-अजहा के त्यौहार के साथ एक प्रकार का बलिदान जुड़ा हुआ है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि एक समय यज्ञ के साथ भी पशु बलिदान का प्रतीक जुड़ा हुआ था। परन्तु यह बलिदान सिर्फ एक प्रतीक था जो हमें अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने की सीख देता था और साथ ही दैनिक जीवन के उन पहलुओं को त्यागने की बात करता था जो हमें केवल संवेदनात्मक सुख प्रदान करते हैं। तो आइये आज के इस शुभ अवसर पर गीता द्वारा परिभाषित प्राचीन भारत के ‘यज्ञ’ के वास्तविक अर्थ को समझें।

गीता के चौथे अध्याय के मध्य में, कुछ निर्देश दिए गए हैं जो विभिन्न प्रकार के बलिदानों का वर्णन करते हैं, जिन्हें ‘यज्ञ’ कहा जाता है। शब्द 'यज्ञ' भगवद गीता में, और शायद भारत के अधिकांश ग्रंथों में, एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है, जो यह दर्शाता है कि जीवन के सिद्धांत में किसी ना किसी प्रकार का बलिदान शामिल है।

निस्संदेह बलिदान का अर्थ है कुछ ‘देना’, परन्तु इसका अर्थ कुछ ‘खोना’ बिलकुल नहीं है। देने से हम कुछ नहीं खोते हैं, उल्टा देने वाला वापसी में सौ गुना पाता है। बलिदान का असली अर्थ समझना काफी मुश्किल है, परन्तु भगवद गीता की शिक्षाओं को समझने के लिए बलिदान को समझना ज़रूरी है।

चौथे अध्याय में विभिन्न प्रकार के बलिदान करने की संभावना की ओर संकेत किया गया है। यहाँ बलिदान के विभिन्न रूपों के इस वर्णन को पूर्ण रूप से दार्शनिक और आध्यात्मिक स्पर्श दिया जाता है, क्योंकि भगवद गीता अपने आप में एक अध्यात्मिक सुसमाचार है और इस प्रकार जीवन के मूलभूत मूल्यों के उपचार में बहुत व्यापक है। द्रव्य यज्ञ, योग यज्ञ, तपो यज्ञ, ज्ञान यज्ञ, इस संबंध में इस्तेमाल किये जाने वाले कुछ शब्द हैं।

यज्ञ – बलिदान, जिस किसी भी रूप में हो, उसका अर्थ अपने आप में उच्च शक्ति का आह्वान करना है, और इसके परिणामस्वरूप स्वयं के उच्च आयाम के लिए निचले आत्म का आत्मसमर्पण करना है, जिसे श्रेष्ठ आत्म के रूप में जाना जाता है। यह समझना भी आसान नहीं है कि यह उच्च आत्म का क्या अर्थ है; न ही हम जानते हैं कि निचला आत्म क्या है। उच्च आत्म एक स्थानिक रूप से स्थित, आरोही श्रृंखला नहीं है, बल्कि स्वयं की एक अधिक तीव्र समावेशी और व्यापक प्रकृति है। निचला आत्म चेतना की वह स्थिति है जो वस्तुओं की दिशा में आकर्षित होता है। उच्च आत्म वह है जो स्वतंत्रता की एक स्थिति है, जिसे वस्तुओं से मुक्ति पाने की दिशा में उठाए गए एक भी कदम से प्राप्त किया जा सकता है।

हम सभी अलग-अलग रूप में स्वार्थी हैं - अपने शरीर के लिए लगाव इसका सबसे बड़ा और भद्दा रूप है, और इसमें अहंकार के जटिल रूप भी शामिल हैं। किसी भी व्यक्ति से जुड़ी किसी भी चीज़ से लगाव भी स्वार्थीता की आड़ में आता है। भगवद गीता के चौथे अध्याय में वर्णित यज्ञ या बलिदान, कुछ हद तक, साधक को स्वर्थीता से ऊपर उठकर स्वयं को उच्च आत्म से जोड़ने की सीख देने के प्रयास हैं। उच्च आत्म और कुछ नहीं बल्कि हमारी सोच और हमारे रिश्तों के व्यापक क्षेत्र के साथ एक सद्भाव की स्थापना है जो वर्तमान में हमारे संवेदी दृष्टिकोण के कारण सीमित है।

एक तरह का यज्ञ या बलिदान आत्म-नियंत्रण और दिमाग की इन्द्रियों को रोकने का संकेत देता है। क्योंकि अनियंत्रित इन्द्रियाँ, अनियंत्रित मन और अनियंत्रित बुद्धि एक ऐसे व्यक्तित्व को जन्म देते हैं जो बाहरी व्यक्तियों और चीज़ों तक स्थानिक पहुँच की इच्छा से घिरा हुआ है, जबकि वास्तव में, ये व्यक्ति और चीज़ें बाहर हैं ही नहीं।

आत्मनियंत्रण के शुरूआती चरण में हमें अपनी भावनात्मक भागीदारी से मुक्ति पानी होगी, फिर चाहे वह तीव्र पसंद के रूप में हो या तीव्र नापसंद के रूप में।

आत्म-नियंत्रण का कारण इस तथ्य के कारण उत्पन्न होता है कि इंद्रियों की सामान्य धारणाएं गलत धारणाएं हैं, क्योंकि इंद्रियों के पास हमारे दिमाग में दुनिया की बाहरीता, चीजों की बाहरीता, और अन्य लोगों से अलगाव का शोर मचाने के अलावा और कोई काम नहीं है। हमारी इन्द्रियों का और हमारा रिश्ता एक निरंतर प्रक्रिया है और दुर्भाग्यवश हमारे पास दुनिया में और कोई रिश्ता नहीं है सिवाए हमारी इन्द्रियों के। इसलिए आत्म नियंत्रण महत्वपूर्ण है जिसमें चेतना-नियंत्रण, बुद्धि नियंत्रण, मानस-नियंत्रण, कारण नियंत्रण शामिल हैं।

अंत में यज्ञ, बलिदान और आत्म-नियंत्रण के बिंदु पर आते हुए हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि हर सच्चा बलिदान अपने आप में एक आध्यात्मिक सीख लिए हुए है जिसे हम अपने दिमाग की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर लागू करते हैं तथा जो किसी भी प्रकार की मानव गतिविधि या धार्मिक अभ्यास से मुक्त है।

संदर्भ:

1.https://www.swami-krishnananda.org/bhagavad/bhagavad_05.html



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