एक समय था जब अवध की सीमा मराठा साम्राज्य (1664-1818) को छुआ करती थी। उस समय बुंदेलखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा मराठा साम्राज्य में आता था। सन 1750 के दशक में लखनऊ के नवाब सफ़दर जंग और मराठा साम्राज्य के पेशवा बालाजी बजी राव के बीच के संधि हुई जिसके अंतर्गत मराठा सेना के कई सैनिक रोहिल्ला पठानों से लड़ने अवध में लखनऊ के पश्चिमी भाग में पहुंचे। इस दौरान महाराष्ट्र के कई परिवार लखनऊ में योद्धा, प्रबंधक, व्यापारी और कलाकार आदि के रूप में बस गए। यही वह समय था जब लखनऊ और महाराष्ट्र का सम्बन्ध शुरू हुआ। और पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के योगदान को कौन भुला सकता है। लखनऊ का भातखंडे म्यूज़िक इंस्टिट्यूट (Bhatkhande Music Institute) भी उन्हीं की देन है (भातखंडे म्यूज़िक इंस्टिट्यूट के बारे में अधिक जानकारी के लिए यह लेख पढ़ें: http://lucknow.prarang.in/1803141037)। लखनऊ और महाराष्ट्र के इतने गहरे नाते के चलते, आइये आज बात करते हैं मराठी भाषा को लिखने में एक समय पर प्रयुक्त की जाने वाली मोड़ी लिपि की।
भारत में कई लिपियों का जन्म हुआ है तथा कितनी ही लिपियाँ यहाँ काल के गाल मे समा गईं। उन्ही लिपियों में से एक है मोड़ी लिपि। मोड़ी लिपि का प्रयोग सन् 1950 ईसवी तक मराठी भाषा को लिखने के लिये किया जाता था। मोड़ी शब्द की व्युत्पत्ती फारसी भाषा के शिकस्त के अनुवाद से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है तोड़ना या मोड़ना। मोड़ी लिपि के विकास के सम्बन्ध में कई सिद्धांत प्रचलित हैं। उन सिद्धान्तों में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त हेमादपंत (हेमाद्री पंडित) ने महादेव यादव और रामदेव यादव के शासन के दौरान (1260-1309 ईसवी के करीब) किया था। एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार हेमादपंत इस लिपि को श्रीलंका से लाये थे।
मोड़ी लिपि को लिखना देवनागरी लिपि के लेखन से जटिल होता था। यही कारण था कि इसका प्रयोग 1950 के बाद से बंद कर दिया गया था। उस वक्त से लेकर आज तक मराठी भाषा लेखन में देवनागरी लिपि का ही प्रयोग हो रहा है। यह लिपि कर्सिव (Cursive) या घसेट कर लिखी जाती थी। वैसे तो मोड़ी में देवनागरी से विशेष अंतर नहीं है। मोड़ी लिपि के अक्षर और सभी स्वर लगभग एक से लगते हैं। कुछ मात्राओं में भी लघु व दीर्घ का अंतर नहीं है। मात्राओं के रूप में यह परिवर्तन भी केवल इस कारण है कि कलम उठाये बिना वाक्य पूर्ण हो सके। कोई नुक़्ता नहीं, कोई खुली हुई मात्रा या अर्धाक्षर नहीं। इसकी एक और विशेषता यह थी कि इसके लेखक और पाठक को देवनागरी का ज्ञान होना ज़रूरी था क्योंकि मोड़ी की सीमाओं में जो कुछ लिखना सम्भव नहीं था उसके लिये देवनागरी का प्रयोग खुलकर होता था। चित्र में मोड़ी लिपि की वर्णमाला के व्यंजन दर्शाये गए हैं।
संदर्भ:
1. https://goo.gl/7sGu5A
2. https://goo.gl/F6s2Yk
3. https://goo.gl/oqCnUJ
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.