रविवार कविता: सयाहत-ए-ज़रीफ़

लखनऊ

 08-07-2018 12:41 PM
ध्वनि 2- भाषायें

प्रस्तुत कविता मशहूर कवि ज़रीफ़ लखनवी द्वारा लिखी गयी है जिसमें वे रेल गाड़ी में लखनऊ से मुंबई तक का सफ़र बड़ी ही खूबसूरती से समझाते हैं। कविता का शीर्षक है 'सयाहत-ए-ज़रीफ़':

कुछ रेल घर का हाल करूं मुख्तेसर बयाँ,
वो नौ बजे का वक़्त, वो हंगामे का समा,
कुलियों का लाद लाद के लाना वो पेटियां,
बजना वो घंटियों का, वो इंजन कि सीटियाँ,
गड़बड़ मुसाफिरों की भी इक यादगार थी,
औरत पे मर्द, मर्द पे औरत सवार थी।
अलकिस्सा रेल जब सू-ए-झांसी रवां हुई,
और शक्ल लखनऊ की नज़र से निहां हुई,
जो थर्ड में थे उनके लिए भी अमान हुई,
बेंचों पे धक्के खा के जगह कुछ अयान हुई।
था तीसरा पहर, ना बखूबी हुई थी शाम,
छूटा जो साथ रेल का हम सब से वलसलाम,
यानी सवाद-ए-बॉम्बे उस वक्त नज़र पड़ा,
ठहरी ट्रेन, इक एक मुसाफिर उतर पड़ा।

कुछ बॉम्बे का हाल करूं मुख्तेसर बयाँ,
चौड़ी सड़क दो रवय्या, कई मंजिले मकान।
हर सूं मिलों का शहर में फैला हुआ धुंआ,
हर एक माले के लिए दस बीस सीढ़ियाँ।
कमरा हर एक काठ का पिंजरा सिला हुआ,
हर इक मकीन फन्दीत हो जैसे पाला हुआ।
बैठे उठे वहीँ पे, वहीँ खाना भी पकाए,
मुँह हाथ धोये, चाहे वहीँ बैठ कर नहाए।
सोने के वास्ते ना मसहरी अगर बिछाए,
फैलाएं ना पैर, कुंडली जो मारे तो हाँ समाए।
ऐसी जगह पर गर कहीं रहने की जगह मिले,
इंसान को ज़िन्दगी में लहद का मज़ा मिले।
बाईस फरवरी की सहर जब मियाँ हुई,
उठे सवेरे जैसे ही ज़ुल्मत निहां हुई।
असबाब बाँध बून्ध के होशियार हो गए,
गाडी बुलाई, चलने को तैयार हो गए।

पहुंचा हर इक जहाज़ पर जैसे भी हो सका,
लेकिन कहीं पर मिलती ना थी बैठने की जगह।
असबाब चार सिमट था फैला पड़ा हुआ,
सुनता ना था कोई जो कोई था पुकारता।
बुर्का में औरतें थीं, मगर ग़ैर हाल था,
रेला वो था कदम का ठहरना महाल था।
कुछ खंड में भरे गए असबाब की तरह,
कुछ बेकरार हो गए सीमाब की तरह;
इक जगह पे कुछ समा गए आब की तरह,
कुछ घूमते ही रह गए गिरदाब की तरह।
मौजों का उठना और तलातुम का अल्हज़र!
बेखुद हुए ये सब के ना अपनी रही खबर।
कई से मुसाफिरों का बहुत ग़ैर सा हाल था,
चक्कर वो था के सर का उठाना महाल था।
थीं जिनके साथ औरतें उनका ना पूछो हाल,
ले जाना और लाना था इक जान का बवाल।

सीढ़ी से उनको ले के उतरना था एक महाल,
बे पर्दगी का ध्यान, ना परदे का था ख़याल।
ये पर्दा दारी जान के ऊपर अज़ाब थी,
इन औरतों से मर्दों की मिट्टी खराब थी।
कहती थी कोई लो मेरा बुर्का अटक गया,
हाय, हाय! नाया था तीन जगह से मसक गया।
साहिब संभालो सर से दुपट्टा खिसक गया,
लो पैंचा उलझ गया, मुक़न्ना सरक गया।
लो बीवी पानदान का ढकना भी गिर गया,
आफत पड़े जहाज़ पे, कत्था भी गिर गया।
तौबा ये मेरे बच्चे का बटुआ भी गिर गया,
ऐ लो, निगोरे तोते का पिंजरा भी गिर गया।
पहुचूंगी अबकी गर असल खैर से मैं घर,
बीवी अमेठे कान करूंगी ना फिर सफ़र।
वो कौन लोग हैं के जो आते हैं बार बार,
सच है बुआ के घर है ग़नीमत हज़ार बार!

संदर्भ:
1. मास्टरपीसेज़ ऑफ़ ह्यूमरस उर्दू पोएट्री, के.सी. नंदा



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