भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। मानव के दुखों की निवृत्ति के लिए तत्त्व का साक्षात्कार करने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप से विकसित होने लगा था। आज बहुत से लोग अपने आप को आस्तिक और नास्तिक कहते हैं। आस्तिक का अर्थ है भगवान और वेद को मानने वाला और नास्तिक का अर्थ इसके बिलकुल विपरीत है। भारत में पुराना रिवाज है जो कि दोनों ही दर्शनीय विद्यालयों को मानता है, कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहाँ वेद पढ़ाये जाते हैं और कुछ ऐसे जहाँ वेद नहीं पढ़ाये जाते हैं। यह भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है और इसकी मदद से भारत में नए धर्मों का आगमन और प्रचार हुआ-
चौथी सदी में यहूदी/इसाई आया, 11वीं सदी में इस्लाम आया, 13वीं सदी में पारसी धर्म आया, 20वीं सदी में बहाई आदि। आज के लोग न्याय, वेदांत, अद्वैत आदि शब्दों का इस्तेमाल तो करते हैं पर वे इनमें और बुद्ध, जैन और चार्वाक के शिक्षण में अंतर नहीं पता लगा पाते। वे केवल कुछ रीति रिवाजों और गुरु द्वारा पहने गए वस्त्र को पहचान पाते हैं। आइए आज 9 भारतीय दर्शन के प्राथमिक विद्यालय को समझने की कोशिश करते हैं।
1. सांख्य- यह रूढ़िवादी दार्शनिक प्रणाली का सबसे पुराना हिस्सा है, इसका यह मानना है कि जो भी चीज़ असल जीवन में है वह वजूद में आत्मा के द्वारा आई और प्रकृति इसका घर है।
2. योग- योग विद्यालय पतंजलि द्वारा दूसरी सदी ईसापूर्व में खोजा गया था। योग सूत्र संख्या और मनोविज्ञान को स्वीकार करता है। योग सूत्र 8 भागों में बटा है जिसे अष्टांग कहते हैं, यह बुद्ध के आठ पर्वों को दर्शाता है।
3. न्याय- न्याय विद्यालय न्याय सूत्र पर आधारित है, यह सूत्र दूसरी सदी ईसापूर्व में ऋषि गौतम द्वारा लिखा गया था। इसकी कार्यप्रणाली तर्क की प्रणाली पर आधारित है। एरिस्टोटल के ऐसे ही तर्क ने पश्चिम में अपनी छाप छोड़ी थी।
4. वैशेषिक- वैशेषिक विद्यालय के मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इसके अनुसार संसार की सभी वस्तुओं को एक सीमित संख्या के छोटे कणों के रूप में देखा जा सकता है। वैशेषिक और न्याय विद्यालय अंत में अपने मिलते जुलते अध्यात्मिक सिद्धांतों की वजह से एक दूसरे से जुड़ गए।
5. पूर्व मीमांसा- इसका अहम उद्देश्य विद्यालय में वेद के कानूनों का पालन करना है। यह वेद में पूरी आस्था को व्यक्त करता है।
6. वेदांत- वेदांत या उत्तर मीमांसा उपनिषद के दर्शनीय शिक्षण पर गौर करता है। यह आत्म-ज्ञान, ध्यान और अनुशासन पर ख़ास ध्यान देता है। इसे छ: उप-विद्यालयों में बांटा गया है -
*अद्वैत- जो ब्राह्मण की आत्मा की रक्षा करता है।
*विसिश्टद्वैत- जो यह ज्ञान देता है कि भगवान का एक रूप और आकार है।
*द्वैत- यह तीन अलग-अलग असलियतों पर गौर करता है : विष्णु , शाश्वत आत्मा और वास्तु।
*द्वैतद्वैत- इसका यह मानना है कि ब्राह्मण आज़ादी से रहते हैं और आत्मा और वास्तु परतंत्र हैं।
*शुद्धद्वैत- इसका मानना है कि कृष्णा ब्राह्मण का असल रूप हैं।
*अचिन्त्य भेद अभेद- इसका यह मानना है कि आत्मा भगवान के करीब निवास करती है।
7. चार्वाक- चार्वाक को भारतीय दर्शन में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, चार्वाक का कथन “जब तक जियो सुख से जियो कर्जा ले कर घी पियो” इस सिद्धांत को प्रतिपादित करता है। चार्वाक सिद्धांत नास्तिकता पर आधारित है तथा यह कर्म पर भरोसा करता है। चार्वाक के सिद्धांत के अनुसार परलोक, पुनर्जन्म और आत्मा-परमात्मा जैसी बातों की परवाह न करें। भला जो शरीर मृत्यु पश्चात् भस्मीभूत हो जाए, यानी जो देह दाहसंस्कार में राख हो जाये, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहाँ उठता है। जो भी है इस शरीर की सलामती तक ही है और उसके बाद कुछ भी नहीं बचता इस तथ्य को समझकर सुखभोग करें, उधार लेकर ही सही। तीनों वेदों के रचयिता धूर्त प्रवृत्ति के मसखरे निशाचर रहे हैं, जिन्होंने लोगों को मूर्ख बनाने के लिए आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी बातों का भ्रम फैलाया है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि चार्वाक किस प्रकार से भगवान पर भरोसा नहीं करता तथा यह नास्तिक प्रवृत्ति को प्रस्तुत करता है।
8. बौद्ध दर्शन- बौद्ध दर्शन का प्रतिपादन आस्तिक विचार धारा से किया जा सकता है परन्तु ये गूढ़ आस्तिकता से परे है। बौद्ध धर्म के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। बौद्ध दर्शन और शिक्षा को तीन भागों में विभाजित किया गया है जैसे- विनय पीटक, अभिधम्म पीटक व सुत्त पीटक। बौद्ध दर्शन के अनुसार चार आर्यसत्य हैं:
*सर्वदु:खम्
*दु:ख समुदाय
*दु:ख निरोध
*दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपद
बौद्ध दर्शन में मुख्य रूप से सत्कर्म पर बल दिया गया है, वही निर्वाण तक पहुंचा सकता है।
9. जैन धर्म- जैन धर्म का आरंभ बौद्ध धर्म से पहले हुआ था। जैन दर्शन को नास्तिक दर्शन के आधार पर जोड़ कर देखा जाता है। इसके अनुसार किसी भी प्राणी को दुःख देना उचित नहीं है तथा मानव को उतने में ही संतुष्ट हो जाना चाहिए जितने में उसका बसर हो सके। बौद्ध और जैन धर्म दोनों एक ही समय काल से सम्बंधित हैं और यदि देखा जाए तो दोनों का मूल यही है कि किसी अन्य प्राणी को दुःख न दिया जाए और सभी को सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए।
इस प्रकार से भारतीय दर्शन के विभिन्न आयामों को हम देख पाते हैं और उनके मध्य के संबंधों को भी समझ सकते हैं। हमें यह ज्ञात होना ज़रूरी है कि इन छ: विद्यालयों का प्रमाण हमें अकबर के दरबार से मिलता है। अकबर के मित्र अबुल फैज़ अलग-अलग भारतीय दर्शन के विद्यालयों के ऊपर लेख लिखा करते थे तथा उनके लेख ऐन-ऐ-अकबरी में मौजूद हैं। बाद में संस्कृत विद्वान मैक्स मुलर ने इन छ: विद्यालयों के ऊपर लेख लिखा जो कि काफ़ी प्रसिद्ध भी हुआ।
1. https://www.philosophybasics.com/general_eastern_indian.html
2. https://en.wikipedia.org/wiki/indian_philosophy
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