लखनऊवासियो, जानिए दिवाली के भोग और खील-बताशा का अनोखा सांस्कृतिक महत्व

विचार I - धर्म (मिथक/अनुष्ठान)
20-10-2025 09:08 AM
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लखनऊवासियो, जानिए दिवाली के भोग और खील-बताशा का अनोखा सांस्कृतिक महत्व

लखनऊवासियो, दीपावली का पर्व जब अपने पूरे वैभव और रौनक के साथ आता है, तो शहर की गलियों और चौक-चौराहों पर फैली मिठास और खुशबू हर दिल को छू जाती है। नवाबों के इस शहर की पहचान सिर्फ़ तहज़ीब और अदब में ही नहीं, बल्कि इसके पारंपरिक व्यंजनों और त्योहारों की झलक में भी नज़र आती है। दिवाली की रात जब घर-घर दीपकों की रोशनी जगमगाती है, तो उसी समय रसोई से आती लड्डू, बर्फ़ी और खासकर खील-बताशे की सुगंध इस त्योहार को और भी पवित्र और खास बना देती है। खील-बताशा, जो दिवाली पर देवी लक्ष्मी को अर्पित किया जाने वाला प्रमुख प्रसाद है, केवल मिठास का प्रतीक नहीं बल्कि हमारी कृषि संस्कृति, धार्मिक आस्था और स्वास्थ्य का भी दर्पण है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि दीपावली की चमक सिर्फ़ दीपों और सजावट तक सीमित नहीं है, बल्कि भोजन और भोग भी इस उत्सव को आत्मीय और पूर्ण बनाते हैं।
आज हम सबसे पहले समझेंगे कि दिवाली में भोग और प्रसाद का सांस्कृतिक महत्व क्यों है और यह हमारी परंपराओं से कैसे जुड़ा हुआ है। इसके बाद हम खील-बताशा के प्रतीकात्मक अर्थ और स्वास्थ्य से इसके संबंध को विस्तार से जानेंगे। फिर हम देखेंगे कि बंगाल में दिवाली काली पूजा के रूप में कैसे मनाई जाती है और वहाँ विशेष भोग की क्या अहमियत होती है। अंत में, हम भारत की क्षेत्रीय विविधताओं और दिवाली की पाक परंपराओं पर नज़र डालेंगे, जिससे हमें पता चलेगा कि एक ही पर्व अलग-अलग हिस्सों में कितनी अनोखी तरह से मनाया जाता है।File:Lighting Lamps!.jpg

दिवाली में भोग और प्रसाद का सांस्कृतिक महत्व
भारत में हर त्योहार की पहचान उसके भोजन और प्रसाद से होती है। दीपावली में जहां घर-घर दीपक जगमगाते हैं और सजावट मन मोह लेती है, वहीं मिठाइयों और पारंपरिक भोग का महत्व इस पर्व को और भी खास बना देता है। दिवाली पर परिवारजन और अतिथि एक साथ बैठकर पकवानों का आनंद लेते हैं, जिससे आपसी स्नेह और अपनापन गहरा होता है। विशेष रूप से खील बताशा, जो इस पर्व का प्रमुख प्रसाद है, देवी लक्ष्मी को अर्पित किया जाता है। यह केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि हमारी कृषि जीवनशैली का भी प्रतीक है। चूंकि दिवाली के समय धान की नई फसल काटी जाती है, इसलिए ताज़े चावल से बनी खील इस मौसम का स्वाभाविक हिस्सा बन जाती है। इस प्रकार, दिवाली का प्रसाद हमारी आस्था, कृषि और सामाजिक जीवन को एक सूत्र में पिरोता है।

खील बताशा का प्रतीकात्मक अर्थ और स्वास्थ्य से जुड़ाव
खील बताशा केवल चीनी और चावल का साधारण मेल नहीं, बल्कि समृद्धि, स्वास्थ्य और संतुलन का प्रतीक है। इसे देवी लक्ष्मी के प्रति आभार और श्रद्धा के रूप में अर्पित किया जाता है। धार्मिक दृष्टि से यह प्रसाद संपन्नता और मंगलकामना का संकेत है। साथ ही, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी खील बताशा का अपना महत्व है। दिवाली के दौरान जहाँ घर-घर भारी मिठाइयाँ, तैलीय पकवान और नमकीन व्यंजन बनाए जाते हैं, वहीं खील बताशा हल्का और पचने में आसान भोजन प्रदान करता है। यह पाचन को सामान्य बनाए रखने में मदद करता है और त्यौहार की व्यस्तताओं के बीच शरीर को आवश्यक संतुलन देता है। यही कारण है कि खील बताशा सिर्फ धार्मिक प्रसाद नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक और स्वास्थ्यकर परंपरा भी है।

बंगाल में दिवाली और काली पूजा का विशेष भोग
भारत के पूर्वी हिस्से, विशेषकर बंगाल में, दिवाली काली पूजा के रूप में एक अनोखे स्वरूप में मनाई जाती है। यहां पूजा आधी रात को होती है और इसमें विस्तृत भोग अर्पित किया जाता है। पूजा की थाली में खिचड़ी, पाँच मौसमी सब्जियाँ, चटनी, पायेश, सूजी हलवा और लुची जैसे विविध व्यंजन शामिल होते हैं। इसके साथ ही 108 प्रकार के फल और अनगिनत पकवान नैवेद्य के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। बंगाल की सबसे खास परंपरा है “शाकाहारी मटन”, जिसे प्याज़ और लहसुन के बिना तैयार किया जाता है। यह व्यंजन भले ही नाम से मटन कहलाता हो, लेकिन इसे पूरी तरह शाकाहारी सामग्री से बनाया जाता है और यह काली पूजा का अहम हिस्सा है। इस तरह बंगाल में दिवाली केवल रोशनी का पर्व नहीं, बल्कि अर्पण, परंपरा और विशेष पाक विधाओं का अद्भुत संगम बन जाती है।

भारत की क्षेत्रीय विविधताएँ और पाक परंपराएँ
भारत की विविधता उसके हर त्योहार और भोजन में झलकती है, और दिवाली इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। पूर्वी बंगाल में इस दिन देवी को “जोरा इलिश” (Zora Eilish - हिलसा मछली) अर्पित करने की परंपरा है, जो स्थानीय संस्कृति और आस्था का प्रतीक है। वहीं, देश के अलग-अलग हिस्सों में भिन्न-भिन्न व्यंजन दिवाली के भोग में शामिल किए जाते हैं। कहीं नरु, मोया, मुर्की और खोई प्रमुख होते हैं तो कहीं निमकी, लुची और पांच प्रकार की मौसमी सब्जियाँ पूजा की थाली को सजाती हैं। उत्तर भारत में लड्डू और बर्फी जैसे पारंपरिक पकवान बनते हैं, जबकि बंगाल में पायेश और खीर-मिष्टी विशेष महत्व रखते हैं। इन क्षेत्रीय विविधताओं से यह साफ दिखाई देता है कि एक ही पर्व अलग-अलग संस्कृतियों और परंपराओं में कितनी अनोखी छाप छोड़ता है। भोजन ही वह कड़ी है जो पूरे भारत को इस त्योहार पर जोड़ता है और हर घर में मिठास और उत्साह का संचार करता है।

संदर्भ-
https://shorturl.at/FbsDL 



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