स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु ने भारत के लिए अनूठेपन का नजरिया अपनाया था, उन्हें भारत के विकास में नवपरिवर्तन, आयोजन और योजनाबद्ध सरंचना को लाना था ताकि नये राष्ट्र की आधुनिक प्रगतिशील दृष्टिकोण के तहत निर्मिती हो सके।
इसीलिए उन्होंने देश विदेश से और भारत के भी कई विद्वानों को इस कार्य को नतीजा देने बुलाया। उन्होंने चंडीगढ़ के नगर नियोजन के लिए फ्रांस में जन्मे स्विस वास्तुकार व नगर-नियोजक ली कार्बुज़िए को आमंत्रित किया जिन्होंने इस शहर के बहुत से खाके व इमारतों की वास्तु रचना सन 1950 के दशक में की। उसी तरह भुवनेश्वर भी स्वतंत्र भारत के प्रथम योजनाबद्ध शहरों में से एक है जिसकी नीव खुद पंडित नेहरु ने रखी थी, इस शहर का व्यवस्थापन डॉ. ओट्टो क्योनिग्सबर्जर द्वारा प्रस्तुत किये नगर-नियोजन के निर्देशों के अनुसार हुआ था।
पंडितजी ने कैलिफ़ोर्निया के रे और चार्ल्स ईम्स को आमंत्रित किया, उन्हें भारत के लिए सरंचना घोषणापत्र बनाने को कहा गया। उनके प्रस्तुत किये भारत विवरण निवेदन के अनुसार अहमदाबाद में राष्ट्रीय डिजाईन संस्थान की सन 1961 में स्थपना हुई।
ईम्स परिवार को भारत की विविधता ने चौंका दिया था, यह निवेदन लिखने के लिए वे भारत में बहुत समय रहे और अपने इस निवेदन में उन्होंने भारत की उन्नति के लिए जरुरी सरंचना को आर्थिक भूगोल, स्थानीय संसाधन और पारंपारिक उत्पादों से जोड़ा। उनके सिफारिश किये हुए निवेदन आज भी भारत के लिए फायदेमंद साबित हो रहे हैं।
केले के पत्ते पर खाना और अन्य स्थानीय पारंपरिक उत्पादों के अलावा उन्हें लोटा विशेष रूप से भा गया। उन्होंने लोटे को एक संदर्भ-बिंदु की तरह इस्तेमाल करते हुए बताया कि किसी वास्तु का निर्माण करते वक़्त किन चीजों का ध्यान रखना जरुरी है। ये बहुत दिलचस्प है क्यूंकि भारत में पुरातात्विक अन्वेषण और उत्खनन से यह सामने आया है कि लोटा, थाली और कटोरा यह आकार प्राथमिकता से और बहुत पुराने काल से मिलते हैं।
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि कुछ निर्माण करने के लिए आपको पहले आपके दिमाग से सारे पूर्वकल्पित विचारों को निकाल देना चाहिए और फिर उसके बाद उस वास्तु के करक एवं घटकों को मद्देनजर रख कर निर्मिती की ओर बढ़ना चाहिए। उन्होंने लोटे के लिए एक प्रश्नावली बनाई जो कुछ इस प्रकार है:
1. कितना पानी अथवा द्रव पदार्थ एक समय में लाया, ढोया, डाला (किसी दूसरे बर्तन में) और किसी निर्धारित परिस्थिति के अनुसार संचयित किया जा सकता है।
2. इसे इस्तेमाल करने वाले हाथ स्त्री के हैं या पुरुष के? उनका आकार और मजबूती कितनी है?
3. इसे कैसे ढोया जाएगा, सर पे, कमर पर, हाथ से, टोकरी में या गाड़ी में?
4. जब इसे किसी दूसरे बर्तन अथवा जगह पर डाला जाए तब उसका संतुलन कैसे रहेगा, उसका भर-केंद्र कहाँ होगा?
5. इस बर्तन की तरल गतिशीलता का परिमाण क्या है, जब आप इसे इस्तेमाल करते हो अथवा साफ़ करते हो या एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हो?
6. यह हाथ में एवं कमर पर ठीक से रहे, फिसले ना इसके लिए इसका आकार।
7. इसका आकार जब आप इसे लेकर, भरकर एक जगह रखो तो क्या यह इन सब कार्यों के लिए सही है?
8. क्या इसका इस्तेमाल द्रव पदार्थ के अलावा किसी और चीज़ को रखने के लिए किया जा सकता है?
9. इसके मुख का आकार कैसा है, कोई और चीज़ को रखने लायक है क्या एवं इसे अन्दर से साफ़ कर सकते हैं ऐसा आकार है क्या?
10. इसका अन्दर और बाहर से बनावटी ढांचा कैसा है, साफ़-सफाई के लिए और अनुभूति के लिए।
11. गर्मी का हस्तांतरण-क्या अगर गर्म चीज़ इसके अन्दर रखी जाए तो आप इसे पकड़ सकते हैं?
12. आँखे बंद अथवा खुली रखकर इसे छूने पर कैसी अनुभूति होती है?
13. जब यह बर्तन किसी और बर्तन से टकराता है अथवा इसके अन्दर जब आप कोई चीज़ डालते हो तब जो आवाज़ आती है वो सुमधुर है या कर्कर्श्य है?
14. इसे बनाने के लिए कौन सी सामग्री इस्तेमाल की जाए?
15. इसकी बनाने की क़ीमत और इस्तेमाल की क़ीमत सही है?
16. पूंजी निवेश को अधोरेखित कर इसकी सामग्री एक उत्पाद अथवा क्षति से बचने के लिए क्या दे सकती है?
17. क्या इसे बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री का इसके अन्दर रखे गयी सामग्री पर कोई असर होता है, अगर होता है तो क्या और इसे कैसे टाल सकते हैं?
18. सूरज की रौशनी में ये उत्पाद कैसा दिखेगा?
19. इसे इस्तेमाल करने पर, बेचने पर, देने पर अथवा इसकी प्राप्ति पर कैसा अनुभव होता है?
अगर आप यह सवाल और निर्देश देखें तो एक बात समझ आती है कि मानव की चेतनाओं को इसमें अधोरेखित किया गया है, स्पर्श (त्वचा), देखना (आंखे), ध्वनि (कान) आदि के साथ-साथ उपयोगिता तथा आर्थिक मायने को भी नज़र में रखा गया है।
भारत में आई संस्कृतियों को, उनके पड़ाव को एवं उनके भौगोलिक फैलाव को बर्तनों के हिसाब से बांटा गया है जैसे लाल-चमकीले मृदभांड संस्कृति, गैरिक मृदभांड संस्कृति, चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति, काले एवं लाल मृदभांड संस्कृति, उत्तरी काले पॉलिशदार मृदभांड संस्कृति। उत्तरी काला पॉलिशदार मृदभांड बहुत मूल्यवान माना जाता था, पुरातत्व सर्वेक्षण, उत्खन में कुछ इस प्रकार के बर्तन मिले हैं जिसे वापस जोड़ कर इस्तेमाल किया गया था। इन सभी मृदभांड संस्कृतियों में एक बात गौर करने लायक है कि थाली, कटोरा और लोटा आपको सभी में मिलेगा और आज भी इनका इस्तेमाल होता है। लखनऊ के हर घर में आपको यह बर्तनों के आकार अलग अलग प्रकार के सामग्री से बने मिलेंगे लेकिन आज भी यहाँ पर मिट्टी के बर्तनों का व्यवसाय जारी है जिसमें मटका प्रमुख उत्पाद है।
1. http://www.eamesoffice.com/the-work/the-lota-the-india-report/
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.