मंदिर तभी बनता है जब उसमें आप किसी देवता की मूर्ति स्थापित करते हैं जैसे शिवलिंग, नरसिंह, काली आदि। मंदिरों में स्थापित की जाने वाली मूर्तियों के कुल 5 प्रकार हैं:
1. स्वयंभू- मान्यता है कि इस प्रकार की मूर्तियाँ स्वयं प्रकट होती हैं, स्वयंभू मतलब खुद से उत्पन्न होने वाली।
2. दैवीकम- कहते हैं कि यह मूर्तियाँ किसी दिव्य व्यक्ति (ब्रह्म, इंद्र, वरुण आदि) द्वारा पूजा के लिए प्रस्थापित की गयी होती हैं।
3. अर्षम- यह मूर्तियाँ बड़े ऋषिमुनियों द्वारा प्रस्थापित की होती हैं।
4. मानुषम- राजा, भक्त अथवा जन-हितैषी लोगों द्वारा पूजा-अर्चना के लिए प्रस्थापित की गयी मूर्तियों को मानुषम कहते हैं। मानुष मतलब मनुष्य।
5. असुरम- पुराणों के हिसाब से असुर अथवा राक्षसों द्वारा प्रस्थापित की गयी मूर्तियाँ।
आगमों के नियमावली के अनुसार, जो मंदिर स्वयंभू देवताओं के उत्पत्ति स्थान पर बने होते हैं अथवा जो किसी ऋषिमुनी, देवता या राक्षस ने बनाए हों, ऐसे वक़्त वह स्थान सबसे पवित्र माना जाता है और तीर्थक्षेत्र सरिका कहलाता है। वहाँ पर किसी भी प्रकार की शास्त्रविधि, कर्मकांड अथवा धार्मिक संस्कार करने की जरुरत नहीं होती। पर अगर कोई मनुष्य जैसे राजा या जनहितैषी मंदिर बनाना चाहे तब उसे आगम और शिल्पशास्त्र के हिसाब से मंदिर के लिए जगह ढूंढकर वहाँ शास्त्रशुद्ध तरीके से मंदिर बनाकर इश्वर की मूर्ति की प्राण प्रतिस्थापना और अनुष्ठान करना पड़ता है। इस तरह बने मंदिर में आवर्त-प्रतिष्ठा मतलब दिव्य शक्ति के वास का आवाहन कर उसकी पूर्तता के बाद ही रोजाना की पूजा अर्चना शुरू की जा सकती है। इस तरह प्रस्थापित मूर्तियों को वैष्णव आगमों में ‘अर्च-मूर्ति’ कहते हैं। वैष्णव आगमों में यह लिखा गया है कि भक्त की इच्छा अनुसार मूर्ति पत्थर, मिट्टी, ईंट या पत्थर, लकड़ी या फिर सोने के साथ चार प्रकार के धातु मिलाकर बनाई जाती है जिसे पंचलोह कहा जाता है।
मूर्तियों के हाव-भाव एवं अंग-विन्यास से मूर्ति को नीचे दिए हुए विभागों में बांटा गया है:
1. सौम्य मूर्ति: शांत और निर्मल हाव-भाव वाली मूर्तियाँ सौम्य कहलाती हैं। यह मूर्तियाँ किसी भी जगह पर मंदिर बनाकर उनमें प्रस्थापित की जा सकती हैं और ज्यादातर इन्हें मनुष्य की बस्तियों के अन्दर अथवा आस-पास बनाया जाता है।
2. भोग मूर्ति: भगवान की मूर्तियाँ जो अपने सहचारी के साथ बैठे अथवा खड़े हुए आलिंगन मुद्रा में रहते हैं उसे भोग मूर्ति कहते हैं, जैसे शिव-पार्वती, उमा-महेश, लक्ष्मी-नारायण आदि।
3. योग मूर्ति: जो मूर्तियाँ योग-साधना में बैठी होती हैं उन्हें योग-मूर्ति कहते हैं जैसे योग-नरसिम्हा, दक्षिण-मूर्ति, अय्यपा आदि।
4. उग्र-मूर्ति: जब भगवान की मूर्ति क्रूर/ भयंकर मुखाकृति की हो और उनके अंग-विन्यास क्रोध जाहिर करते हों तो ऐसी मूर्ति को उग्र-मूर्ति कहते हैं। उग्र-नरसिंह (जब वे हिरण्यकश्यपू का पेट फाड़ते हुए दिखाते हैं), वीरभद्र, भैरव, भैरवी, काली, दुर्गा, कालरात्रि आदि।
सौम्य और भोग मूर्तियों के मंदिर इंसान की बस्तियों में अथवा उसके आस-पास बनाए जाते हैं तथा उग्र-मूर्तियों के मंदिर घने जंगलों में अथवा मनुष्य बसाव के बाहरी इलाकों में बनाए जाने चाहिए ऐसा आगम और शास्त्र का मानना है। योग-मूर्ति का मंदिर मनुष्य बस्तियों से बहुत दूर होना चाहिए जैसे घने जंगलों के बीचोबीच, बड़ी पहाड़ियों की चोटी पर, दुर्गम जगहों पर अथवा ऐसी जगहों पर जहाँ पर किसी रोक-टोक के बिना कोई भी तापस और पूजा-अर्चना कर सके।
आगमों के हिसाब से स्वयंभू मंदिरों को कभी भी अपने स्थान से नहीं हिलाना चाहिए, जो शास्त्र अथवा कर्मकाण्ड आगम अथवा शिल्पशास्त्रों में मंदिरों के लिए बताया गया है वो इन स्वयंभू मंदिरों के लिए लागू नहीं होता। इन्हें तीर्थ क्षेत्र कहा जाता है, जैसे 12 ज्योतिर्लिंग, 108 दिव्यक्षेत्र, 52 शक्तिपीठ आदि जो पूरे भारत में फैले हुए हैं।
1. आलयम: द हिन्दू टेम्पल एन एपिटोम ऑफ़ हिन्दू कल्चर- जी वेंकटरमण रेड्डी
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