1776 में, अवध की राजधानी, फ़ैज़ाबाद से लखनऊ स्थानांतरित होने के साथ, हमारा शहर लखनऊ, सांस्कृतिक पुनर्जागरण का केंद्र बिंदु बन गया। हमारे शहर में, कविता का एक लंबा इतिहास है, और यह उर्दू शायरी का एक प्रमुख शिक्षालय है। हमारा शहर, अपने मुशायरों के लिए जाना जाता है, जो उर्दू भाषा को बढ़ावा देने, और कवियों को प्रोत्साहित करने वाले आयोजन हैं। तो चलिए, आज हम उर्दू शायरी की लखनऊ शैली और उसके इतिहास के बारे में, विस्तार से जानेंगे। फिर, हम पता लगाएंगे कि, लखनऊ, उर्दू शायरी का केंद्र कैसे बन गया। आगे, हम दिल्ली और लखनऊ में उर्दू शायरी की शैलियों के बीच के अंतर को समझने की कोशिश करेंगे। उसके बाद, हम पूरे इतिहास में, लखनऊ के कुछ सबसे प्रसिद्ध कवियों और उनके कार्यों के बारे में जानेंगे।
लखनऊ काव्य शैली, जीवन के प्रति अपनी सकारात्मक भावना के लिए पहचानी जाती है। इसने जीवन में आई निराशाओं पर, शोक मनाने के बजाय जीवन का जश्न मनाया है। इस प्रकार, कवियों ने प्रेम को उसकी संपूर्ण भव्यता में मनाया है। इसने उनकी कविता में महिला छवि, उनकी पोशाक, और तौर-तरीकों के प्रचुर प्रतिनिधित्व के लिए, रास्ता बनाया।
लखनऊ में उर्दू शायरी का इतिहास:
दिल्ली से लखनऊ में, शायरों के प्रवास के बाद, उर्दू शायरी की लखनऊ शैली अस्तित्व में आई। यह मुगल साम्राज्य के कमज़ोर होने, और नादिर शाह दुर्रानी व अहमद शाह अब्दाली द्वारा, दिल्ली की लूट के साथ विकसित हुई। ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण और नियंत्रण में, लखनऊ एक स्वतंत्र राज्य के रूप में उभरा। इसने शांति और समृद्धि का आनंद लिया, जिससे दरबारी संस्कृति के उद्भव और नवाबों द्वारा, शायरों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त हुआ। चूंकि, लखनऊ एक साहित्यिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में समृद्ध हुआ, इसलिए, दिल्ली के कई शायरों ने, वहां से पलायन करने और लिखने का विकल्प चुना।
इस शैली के संस्थापक – शेख कलंदर बख्श नासिख (1772-1838), लखनऊ उर्दू कविता शैली के सबसे प्रमुख कवि भी हैं। उन्होंने, एक महान कवि के रूप में ही नहीं, बल्कि, काव्य के एक महान शिल्पकार के रूप में भी, अपनी प्रतिष्ठा अर्जित की। उन्होंने भाषा, वाक्यविन्यास और उन काव्य उपकरणों पर विचार-विमर्श किया, जिनका उपयोग उन्होंने किसी रचना को, कला रूप में बदलने के लिए किया था। उन्होंने भाषा और शैली के शास्त्रीय मानदंडों का सम्मान करते हुए, उर्दू को धर्मनिरपेक्ष बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लखनऊ उर्दू शायरी का केंद्र कैसे बना?
1776 में, नवाबों की राजधानी फ़ैज़ाबाद से लखनऊ स्थानांतरित होने के साथ, लखनऊ सांस्कृतिक पुनर्जागरण का केंद्र बिंदु बन गया। तब शाही संरक्षण के तहत कथक, ठुमरी, ख्याल, दादरा, गज़ल, कव्वाली और शेर-ओ-शायरी, अपने चरम बिंदु पर पहुंच गए। इस्लामी शिक्षा के केंद्र के रूप में, लखनऊ में अनीस, दबीर, इमाम-बक्श ‘नासिका’, मिर्ज़ा मोहम्मद रज़ा खान बर्क, आतिश, मिर्ज़ा शौक असर, जोश और अन्य प्रसिद्ध कवियों के तहत, लखनऊ कविता शैली का गठन हुआ।
गज़लों के अलावा, लंबी कथात्मक कविता का दूसरा रूप, जिसके लिए लखनऊ प्रसिद्ध है, वह मसनवी है। उर्दू में, शोकगीत लेखन भी तीन रूपों - ‘मर्सिया’, ‘सलाम’ और ‘नौहास’ के माध्यम से एक नई ऊंचाई तक पहुंचा। एक भाषा के रूप में, उर्दू ने लखनऊ में दुर्लभ स्तर की पूर्णता प्राप्त की, और धीरे-धीरे लखनऊ अविस्मरणीय गज़लों, मसनवी, शोकगीत, हज़ल और नाटकों के उद्गम स्थल के रूप में उभरा।
दिल्ली और लखनऊ की उर्दू शायरी की शैलियों के बीच अंतर:
दिल्ली की तुलना में, लखनऊ की शायरी, शब्दों के मामले में बहुत खास थी। इसने अपनी शैली को विचारों की सुंदरता के बजाय, बाहरी चीज़ों, जैसे कि बाहरी आभूषण, तक सीमित कर दिया था। जबकि, दिल्ली शैली विषय और विचार पर बहुत केंद्रित थी। लखनऊ में प्रचलित, मौखिक सटीकता और मुहावरेदार उपयोग के मुकाबले, दिल्ली में शैली और विचार की गहराई का जोश था। इस गठबंधन के परिणामस्वरूप, नियमों, भाषा और मुहावरों का एक नया मिश्रण हुआ। इससे काव्यात्मक लाइसेंस प्रतिबंधित हो गया, और छंद और भाषण के अलंकारों, विशेष रूप से उपमा और रूपक के लिए नए नियम बनाए गए। साथ ही, शब्दों के प्रयोग में शक्ति की चाहत में, लखनऊ शैली ने गीत की लंबाई और तुकबंदी की संख्या बढ़ा दी।
लखनऊ के कुछ सबसे प्रसिद्ध शायर और उनकी शायरियां:
•अमीर मिनाई:
शाह मखदूम मिनाई (15वीं सदी के प्रसिद्ध मुस्लिम संत) के वंशज – अमीर मिनाई का जन्म, 1829 में शेख करम मोहम्मद मिनाई के घर, लखनऊ में हुआ था। वे एक प्रशंसित उर्दू कवि थे, और फ़ारसी, अरबी, संस्कृत धर्मशास्त्र और मध्यकालीन तर्कशास्त्र में भी पारंगत थे। गज़लों के लिए प्रसिद्ध, मिनाई जी, प्रतिष्ठित उर्दू कवि – ग़ालिब के बाद, रामपुर के तत्कालीन शासक के आधिकारिक काव्य गुरु (उस्ताद) बने। उनकी कई ‘नाअत (पैगंबर मुहम्मद की प्रशंसा में कविता)’ नुसरत फ़तेह अली खान और कव्वाल बहाउद्दीन खान जैसे प्रसिद्ध गायकों द्वारा पढ़ी गईं।
“तीर खाने की हवस है, तो जिगर पैदा कर,
सरफ़रोशी की तमन्ना है, तो सर पैदा कर।’’
•मिर्ज़ा हादी रुसवा:
1858 में, मिर्ज़ा मुहम्मद हादी का लखनऊ में जन्म हुआ था। उन्होंने कविता में – ‘रुसवा’ और उपन्यास लेखन में – ‘मिर्ज़ा रुसवा’, इन छद्म नामों से लिखा। रुसवा ने, मिर्ज़ा दबीर के संरक्षण में अपने लेखन कौशल को तेज़ किया | उनकी मृत्यु के बाद, रुसवा ने, उनके बेटे मिर्ज़ा जाफ़र औज से मदद मांगी। 1920 में, हैदराबाद जाने से पहले, मिर्ज़ा की सभी साहित्यिक रचनाएं, कविताएं और अन्य रचनाएं लखनऊ में लिखी। लखनऊ पर आधारित कुछ रचनाओं के लिए, वे प्रसिद्ध है, जिसमें, शहर की प्रसिद्ध वैश्या – उमराव जान पर आधारित उपन्यास शामिल है। जबकि, उनका एक
दोहा निम्नप्रकार से है–
“दिल लगाने को ना समझो दिल-लगी,
दुश्मनों की जान पर बन जायेगी।
•सफ़ी लखनवी:
1862 में, अवध के एक ज़ैदी सैयद परिवार में, सैयद अली नकी जैदी के रूप में जन्मे, सफ़ी लखनवी ने 13 साल की उम्र में ‘सफ़ी’ इस उपनाम से लिखना शुरू किया। तब वे, किसी मार्गदर्शक की मदद के बिना ही, केवल अपने दम पर लिखते थे। सफ़ी की शायरियां अपनी सादगी और मिठास के लिए, जानी जाती है। यह, उनके समय के लखनऊ की प्रचलित सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति को दर्शाती है। उनके शब्द, सुधारवादी और अपनी शैली में नवीन होने के कारण, उन्हें ‘जन कवि’ के रूप में, आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। सफ़ी जी न, पारंपरिक उर्दू कविता के विपरीत, लेखन के अपने असामान्य तरीके से अपनी विशिष्ट पहचान हासिल की। कवि का निम्नलिखित दोहा, उनकी कविता की अनूठी शैली को उजागर करता है –
“देखे बघैर हाल ये है इज्तिराब का
क्या जाने क्या हो, परदा जो उठे नकाब का।’’
•जोश मलिहाबादी:
जोश मलिहाबादी , उर्दू शायरी के इतिहास में सबसे प्रमुख और शानदार उर्दू शायरों में से एक रहे हैं। उनका जन्म, 5 दिसंबर 1894 को मलिहाबाद में, अफ़रीदी पश्तून के एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनका असली नाम – शब्बीर हसन खान था। उन्होंने सेंट पीटर्स कॉलेज, आगरा से, वर्ष 1914 में, अपनी सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा(Senior Cambridge Examination) उत्तीर्ण की। उन्होंने शांतिनिकेतन में, टैगोर विश्वविद्यालय में छह महीने बिताए और अरबी एवं फ़ारसी भाषा का अध्ययन किया। वास्तव में, उनके परिवार में उर्दू शायरी की एक समृद्ध वंशावली थी, क्योंकि, उनके परदादा, दादा और चाचा उर्दू के सशक्त कवि थे। उन्होंने हैदराबाद रियासत में, उस्मानिया विश्वविद्यालय में अनुवाद पर्यवेक्षक के रूप में काम किया, लेकिन, हैदराबाद के निज़ाम के खिलाफ़ एक नज़्म लिखने के कारण, उन्हें हैदराबाद से निर्वासित कर दिया गया।
•अनवर नदीम:
अनवर नदीम , लखनऊ के प्रसिद्ध उर्दू शायरों में से एक हैं। वे एक प्रशंसित लेखक, व्यंग्यकार, हास्यकार, आलोचक, नाटककार, पत्रकार, लघु कथाकार, पटकथा लेखक और फ़िल्म एवं थिएटर अभिनेता हैं। वह लखनऊ शहर के साहित्यिक क्षेत्र में, उर्दू शायरी के लोकप्रिय चेहरों में से एक हैं। उन्होंने, ‘उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार’, ‘बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार’, ‘फ़खरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी पुरस्कार’ सहित अन्य पुरस्कार जीते हैं। उनकी रचनाएं – शायर, इंशा, इम्कान और लारैब जैसी कुछ प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने, 13 से अधिक किताबें लिखी हैं, और उनकी कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया है। साहित्य अकादमी की द्विमासिक पत्रिका और ‘आज़ाद अकादमी जर्नल’ में भी उनका काम प्रकाशित किया गया है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/4wnss647
https://tinyurl.com/bdf35z4m
https://tinyurl.com/nfxbabm5
https://tinyurl.com/mryc8aje
https://tinyurl.com/msvhsjxv
चित्र संदर्भ
1. जोश मलिहाबादी को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. एक सजी हुई महफ़िल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रतिमा को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. सितंबर 1949 के दौरान, श्रीनगर में ऑल जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ़्रेंस द्वारा आयोजित एक मुशायरे में पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ बाएं से तीसरे नंबर पर बैठे भारत के प्रसिद्ध कवियों में से एक जोश मलीहाबादी को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)