लखनऊ के बारे में जब कोई बात करता है तो पहले याद आता है वहां का खाना, तहज़ीब, नाच-गाना, शेरोशायरी आदि मगर लखनऊ की शख्सियत सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। लखनऊ कभी अपनी युद्धकला और आत्मसुरक्षा के दांवपेचो के लिए भी प्रसिद्ध था।
आर्यन सैन्य स्रोत, तुर्कियों द्वारा लायी युद्धनिति और पर्शिया के अरबों की युद्धकला का मेल लखनऊ की युद्धकला को अपनी पहचान दे रहा था। लकड़ी, पट्टा हिलाना, बिनौत, कुश्ती, बरछा, तीरंदाज़ी, कटार आदि में लखनऊ के युवा निपुण थे। कुश्ती और तीरंदाजी के अलावा आज बाकी कलाएँ समय के साथ नष्ट होती जा रही हैं। तीरंदाजी और कुश्ती भी सिर्फ खेल के तौर पर ही सीखी जाती हैं। पट्टा हिलाना अंग्रेजी खेल ‘फेन्सिंग’ की तरह होता है सिर्फ यहाँ पर लकड़ी की तलवार होती है और ‘फेन्सिंग’ में स्टील/लोहे की। महाराष्ट्र में ‘दांड-पट्टा’ इस नाम से यह कला आज भी प्रसिद्ध है जिसमें स्टील का इस्तेमाल होता है। चाक़ू चलाने का प्रशिक्षण भी लखनऊ में दिया जाता था जिसमें जांबिया नामक अरबी मूल के चाक़ू का काफी इस्तेमाल होता था। लखनऊ के वीर तीरंदाजी में काफी निपुण थे।
लखनऊ में आते बदलावों के साथ-साथ जो स्थिरता आती गयी उसकी वजह से लखनऊ वासियों का ध्यान युद्धकला से ज्यादा खान-पान और मौसिकी तथा शेरो-शायरी में ज्यादा होने लगा और हाँ इसमें लखनऊ ने बड़ी बुलंदियां भी हासिल की हैं।
1. द लखनऊ ओमनीबस
2. उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर वॉल्यूम XXXVII 1959
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