हमारे देश भारत ने ब्रिटिश शासन से अपनी आज़ादी के लिए लगभग दो शताब्दियों तक लड़ाई लड़ी थी । पराधीनता की कहानी, जो 1764 में बक्सर की लड़ाई से शुरू हुई, 15 अगस्त 1947 को भारत की आज़ादी के साथ समाप्त हुई थी। इन दशकों के दौरान, देश के प्रत्येक हिस्से से स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था और अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। हमारा शहर लखनऊ भी अपवाद नहीं था। वास्तव में, हमारे शहर ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1857 के विद्रोह के दौरान मातृभूमि के इस महान संघर्ष में ' तूफ़ान की आंख' के रूप में कार्य किया था। लखनऊ की बेगम हज़रत महल, जिन्हें 'अवध की बेगम' के नाम से भी जाना जाता है, भारत की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थीं, जिन्होंने 1857 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध लखनऊ से भारत के पहले स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई का नेतृत्व किया था। बेगम हज़रत महल, एक साहसी और बहादुर महिला थीं, जिन्होंने इतिहास में, अवध की एकमात्र प्रमुख महिला नेता के रूप में स्थान प्राप्त किया है । अत्यंत संघर्ष के बावजूद, बेगम ने कभी भी अंग्रेज़ों के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया और यहां तक कि नेपाल में अपने निर्वासन के वर्षों के दौरान भी ब्रिटिश राज का विरोध करना जारी रखा। वास्तव में, स्वतंत्रता विद्रोह में उनकी भूमिका ने उन्हें भारत के उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास में एक नायिका का दर्जा दिलाया था। तो आइए, आज के इस लेख में, बेगम हज़रत महल के बारे में जानते हैं और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका के बारे में समझते हैं। इसके साथ ही, लखनऊ के कुछ ऐसे ऐतिहासिक स्मारकों के बारे में जानेंगे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
बेगम हज़रत महल का जन्म, 1820 के दशक में फ़ैज़ाबाद में एक गरीब सईयद परिवार में मुहम्मदी ख़ानम के रूप में हुआ था। बचपन में, गरीबी के कारण. उनके माता-पिता ने उन्हें शाही एजेंटों के हवाले कर दिया, जिनके माध्यम से उन्होंने शाही हरम में एक 'ख़वासिन' के रूप में प्रवेश किया। बाद में, उन्हें वहां पर 'परी' के रूप में पदोन्नत किया गया और वे 'महक परी' के नाम से जाने जानी लगीं । इसके बाद, अवध के अंतिम शासक, वाजिद अली शाह के साथ उनका निकाह हुआ और वे एक बेगम बन गईं। उनके बेटे और अवध के शाही उत्तराधिकारी बिरजिस क़द्र के जन्म के बाद, उन्हें 'हज़रत महल' की उपाधि दी गई।
1856 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध राज्य पर नियंत्रण हासिल कर लिया और नवाब को अधीन होने के लिए मजबूर कर दिया। बेगम हज़रत महल ने इसका विरोध किया, जिसके कारण उन्हें कलकत्ता में निर्वासन के लिए, भेज दिया गया था। लेकिन उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने झुकने से इनकार कर दिया और खुद अवध पर नियंत्रण हासिल करने का फ़ैसला किया।
जैसे ही 1857 में स्वतंत्रता के लिए पहला महान विद्रोह शुरू हुआ, उन्होंने अपने पुत्र बिरजिस क़द्र वली को अवध का शासक घोषित कर दिया और खुद रानी माँ के रूप में शासक का पदभार संभाला। लखनऊ में अपने पुत्र के साथ, वे अवध के क्रांतिकारी सशस्त्र संघर्ष में शामिल हो गईं ।
1857 की भारतीय क्रांति के दौरान, बेगम हज़रत महल की दो प्रमुख शिकायतें थीं - पहली, अंग्रेज़ों द्वारा सड़कों को पक्का करने के लिए मस्ज़िदों और मंदिरों का विनाश और नए बारूद कारतूसों का ज़बरन उपयोग, जिनमें सूअरों और गायों की चर्बी होती थी । बेगम हज़रत महल ने अवध के ग्रामीण लोगों को लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया था। यहां तक कि उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति, देश पर ख़र्च कर दी। उन्होंने अपने सैनिकों के साथ अकेले ही लखनऊ पर फिर से कब्ज़ा कर लिया था। वे भारत के इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई, बख़्त खान और मौलवी अब्दुल्ला जैसे बहादुरों के साथ युद्ध के मैदान में उतरीं थीं ।
उन्होंने नाना साहब के साथ भी मिलकर काम किया और शाहजहाँपुर पर हमले के दौरान, फ़ैज़ाबाद के मौलवी की सहायता के लिए गयीं। 5 जुलाई, 1857 को, उन्होंने विजयी होकर, अपने 14 वर्षीय पुत्र को राजगद्दी सौंपकर लखनऊ में भारतीय शासन बहाल कर दिया। हालाँकि, 16 मार्च, 1858 को ब्रिटिश सैनिकों के लौटने के बाद, बेगम हज़रत महल ने लखनऊ और अधिकांश अवध पर नियंत्रण खो दिया | वे अपनी सेना के साथ पीछे हट गईं, लेकिन पीछे हटने के बाद भी, उन्होंने हार नहीं मानी और अन्य स्थानों पर, उन्होंने फिर से सैनिकों को संगठित करने के प्रयास जारी रखे। अंततः, 1859 के अंत तक, तराई में एक संक्षिप्त आवासीय प्रवास के बाद, उन्हें नेपाल की ओर पलायन करना पड़ा, जहां शुरू में वहां के प्रधान मंत्री जंग बहादुर ने उन्हें शरण देने से इनकार कर दिया था, लेकिन बाद में, उन्हें रहने की अनुमति दे दी गई । अंग्रेज़ों ने उन्हें अवध लौटने और उनके अधीन काम करने के लिए, भारी पेंशन की पेशकश की, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया और अपनी आखिरी सांस तक ब्रिटिश शासन का विरोध करती रहीं। 7 अप्रैल, 1879 को नेपाल के काठमांडू में 59 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में, उनकी भूमिका ने उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सदैव के लिए एक नयिका का दर्जा दिला दिया ।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लखनऊ के ऐतिहासिक स्मारक:
रेज़ीडेंसी (The Residency): जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात आती है, तो लखनऊ में सबसे महत्वपूर्ण स्मारक के रूप में ब्रिटिश रेज़ीडेंसी नाम आता है | ब्रिटिश रेजीडेंसी वह स्थान है, जहां 1857 के विद्रोह के दौरान, लखनऊ की घेराबंदी हुई थी। जुलाई 1857 से नवंबर 1857 तक चली इस घेराबंदी के दौरान, यह स्थान क्रांतिकारियों द्वारा शहर पर कब्ज़ा करने से पहले की सारी कार्रवाई का केंद्र बिंदु था।
रिफ़ा-ए-आम क्लब (Rifa-e-Aam Club): ब्रिटिश शासन के दौरान, लखनऊ में मोहम्मद बाग क्लब जैसे स्थानों पर 'कुत्तों और भारतीयों को प्रवेश की अनुमति नहीं है' इस तरह के साइनबोर्ड लगे होते थे। क़ैसरबाग में 'रिफ़ा-ए-आम क्लब' को ऐसे ही अभिजात्यवाद और भेदभाव के विरोध में बनाया गया था। राष्ट्रवादी अवज्ञा का प्रतीक, यह स्मारक वही स्थान है, जहाँ महात्मा गांधी ने एक बार हिंदी-मुस्लिम एकता पर भाषण दिया था। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच, 1916 का लखनऊ समझौता भी इसी स्थान पर हुआ था।
फ़िरंगी महल (Firangi Mahal): सूफ़ीवाद और संस्कृति का गढ़ होने के अलावा, पुराने लखनऊ की इस इमारत ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। महात्मा गांधी ने 1920 और 1922 के बीच, अतिथि के रूप में तीन बार इस स्थान का दौरा किया था। यहां पर, महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने के लिए रणनीतियों पर चर्चा की थी। इसके अलावा, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जवाहरलाल नेहरू और सरोजिनी नायडू जैसे नेताओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम को गति देने के लिए, लखनऊ में फ़िरंगी महल का दौरा किया था।
काकोरी (Kakori): लखनऊ से लगभग 16 किलोमीटर दूर स्थित, काकोरी गाँव, कुख्यात काकोरी ट्रेन डकैती के लिए जाना जाता है। यह डकैती, 1925 में 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' (Hindustan Republican Association (HRA)) द्वारा की गई थी और इसके प्रमुख क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान थे।
सफ़ेद बारादारी (Safed Baradari): नवाब वाजिद अली शाह द्वारा निर्मित, सफ़ेद बारादरी सफ़ेद संगमरमर से बना एक महल है, जिसे मूल रूप से नवाब के "शोक के महल" के रूप में बनाया गया था। क़ैसर बाग के महाराजा महमूदाबाद में स्थित, सफ़ेद बारादरी में अंजुमन के संस्थापक महाराजा मान सिंह और बलरामपुर के दिग्विजय सिंह की संगमरमर की मूर्तियाँ हैं। शुरुआत में इस इमारत को 'क़सर-उल-अज़ा' नाम से जाना जाता था। बाद में इसे ब्रिटिश याचिका अदालत के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। हालाँकि, इसी बात ने 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को और भी अधिक हवा दी।
संदर्भ
https://tinyurl.com/3zw2sreb
https://tinyurl.com/4w72dtwf
https://tinyurl.com/3cthbp3u
https://tinyurl.com/dhjfx2et
चित्र संदर्भ
1. लखनऊ की दिलकुशा इमारत और बेगम हज़रत महल को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह, wikimedia)
2. बेगम हज़रत महल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. लखनऊ की 1857 के विद्रोह के दौरान की पेंटिंग को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)
4. हुसैनाबाद इमामबाड़े के प्रथम गेट को संदर्भित करता एक चित्रण (प्रारंग चित्र संग्रह)