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हमारा लखनऊ शहर, दुनिया के दो सबसे प्रसिद्ध इमामबाड़ों – बड़ा और छोटा इमामबाड़ा का घर है। इसलिए, हम लखनऊ वासियों ने ‘दास्तानगोई’ शब्द तो सुना ही होगा। यह दो फ़ारसी शब्दों – ‘दास्तान’ अर्थात, ‘कहानी’ और ‘गोई’ अर्थात ‘बताना’, से बना है। दास्तानगोई उर्दू कहानियां सुनाने व कहने की एक कला है। 13वीं शताब्दी में फ़ारस (Persia) में उत्पन्न हुई यह कला रूप, पिछले कुछ वर्षों में विकसित हुई है। तो इस लेख में, हम इस कला, इसके इतिहास और इसके प्रभावों के बारे में जानेंगे। हम भारत के कुछ शहरों में आयोजित, दास्तानगोई कार्यक्रमों, इसके अनुयायियों और अन्य लोगों के बीच इस प्रथा के सांस्कृतिक महत्व को भी देखेंगे।
दास्तानगोई, 13वीं शताब्दी की, उर्दू मौखिक कहनियां सुनाने
की कला है, जिसकी उत्पत्ति पूर्व-इस्लामिक अरब(Arabia) में हुई है। जबकि, इस कला की फ़ारसी शैली 16वीं
शताब्दी के दौरान विकसित हुई। दास्तान-ए-अमीर हम्ज़ा, 19वीं सदी की एक रचना है, जो दास्तानगोई के सबसे
पुराने मुद्रित संदर्भों में से एक है। एक या दो लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली
यह कला, कहानीकार की आवाज़ पर निर्भर करती है। कहानीकार अक्सर ही, पंचतंत्र जैसी अन्य कहानियों के विषयों को अपनाते थे। तथा, अपनी शारीरिक हरकतों एवं आवाज़ के संयोजन से, दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने के लिए, कहानियां सुनाते थे।
आम तौर पर, दास्तानगोई का प्रदर्शन अर्ध चंद्रमा की उपस्थिती में किया जाता है। ऐसे प्रदर्शन के दौरान, एक सिंहासन को संगमरमर के फर्श पर रखा जाता है, जिसके दोनों तरफ, पानदान और मोटे गद्दे होते हैं। इस सिंहासन पर, मखमली सफेद वस्त्र पहने एक दास्तानगो या कहानीकार विराजमान होते हैं। तब, कोई आदमी चमचमाते चांदी के कटोरे में, उनके लिए पानी लाता है। कहानीकार वह पानी पीकर, कहानी सुनाने लगते हैं ।
16वीं शताब्दी के आसपास, दास्तान का भारत में आगमन हुआ। माना जाता है कि, मुगल
सम्राट हुमायूं के ईरान(Iran) से लौटने के बाद, यह सबसे पहले दक्षिण-पश्चिमी भारत के दक्कन क्षेत्र में आया था। फिर,
दास्तानगोई में धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति और विरासत का रंग चढ़ गया,
और कलाकारों ने इसका उर्दू में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। सम्राट अकबर के
प्रयासों से, इस कला की लोकप्रियता में वृद्धि हुई, और, 19वीं
शताब्दी के दौरान, दास्तानगोई दिल्ली और लखनऊ में लोकप्रिय
हो गई।
ऐसे ही लोकप्रिय दास्तानगोई का आयोजन भारत के कुछ प्रमुख शहरों में किया जाता है। अब हम ‘चार सिक्के’ नामक दास्तानगोई के बारे में जानेंगे, जो पैगंबर की आत्मा का जश्न मनाने के लिए, कोलकाता में आयोजित की गई थी। वह दास्तानगोई कुछ ऐसी थी। एक बार पैगंबर मुहम्मद अपने सहाबा(साथियों) के साथ बैठे थे। तभी एक अतिथि, भेंट के रूप में कुछ अंगूर लेकर उनसे मिलने आए । वह अतिथि, पैगंबर को बड़े प्रेम से देख रहे थे । पैगंबर मुहम्मद ने, उसने भेंट दिया हुआ, एक अंगूर खाया। आगे, वह व्यक्ति पैगंबर को देखते रहे, और पैगंबर अंगूर खाते रहे। अतिथि बहुत खुश थे कि, पैगंबर मुहम्मद को उनके अंगूर पसंद आए, और उन्होंने उन्हें खत्म कर दिया। जब मेहमान वहां से चले गए, तो सहाबा ने पैगंबर मुहम्मद से पूछा, उन्होंने अंगूर किसी और के साथ क्यों नहीं बांटे। पैगंबर ने उत्तर दिया कि, “अंगूर खट्टे थे और अगर मैंने आप सभी के साथ साझा किया होता, और यदि कोई अपने चेहरे के भाव से यह स्पष्ट कर देता कि अंगूर खट्टे हैं, तो उसे अच्छा नहीं लगता।”
इस कार्यक्रम के लिए, एक सच्चे लखनवी माहौल को भी दोहराया गया था। तथा, आयोजन
के दौरान, दास्तानगो या कहानीकार – दज़ाहि हुसैन और पलाश चतुवेर्दी ने, दर्शकों को बिना किसी उपदेश
के, पैगंबर के जीवन से रूबरू कराया। दोनों ने पैगंबर के जीवन
के उपाख्यानों के साथ वर्णन शुरू किया, जो पैगंबर की भावना, सादगी और न्याय की
भावना को बढ़ाने के लिए संवादों के साथ सहजता से बुने गए थे।
ऐसी ही एक अन्य दास्तानगोई का आयोजन, अमृतसर में भी किया गया था। इस कार्यक्रम
में, दास्तानगो – अस्करी नकवी ने,
शिक्षिका और कलाकार वेलेंटीना त्रिवेदी के साथ मिलकर, ‘ फ़साना -ए- आज़ाद’ से एक
लोकप्रिय गीत – ‘दास्तान मियां आज़ाद की’ प्रस्तुत किया था। पंडित रतन नाथ
सरशार द्वारा लिखित, इस कृति को उर्दू साहित्य में एक रत्न माना जाता है। ‘ फ़साना -ए- आज़ाद ’, मियां
आज़ाद के उपाख्यानों का संकलन है, और शास्त्रीय रागों पर
आधारित है।
इसी आयोजन के दौरान, दर्शकों को ‘सोज़ ख्वानी’ से भी परिचित कराया गया, जो कहानी बताने व सुनाने का एक अन्य प्राचीन रूप है। इसमें ज़्यादातर शोक कविताएं होती हैं, जो कर्बला की त्रासदी का संदर्भ देती हैं, और मुहर्रम के महीने के दौरान पूर्ण की जाती हैं।
हमारे देश व लखनऊ में, दास्तानगोई का प्रभाव और सांस्कृतिक महत्व सार्थक
रहा है। आज, नई दिल्ली में, कुछ कलाकारों का एक समूह, इस कला को पुनर्जीवित कर रहा है। ये कहानीकार अपने आस-पास इकट्ठा होने
वाली भीड़ को लुभाने के लिए, अपने भाषाई और अभिनय कौशल का
सहारा लेते हैं।
दिल्ली में दास्तानगोई समूह के कलाकार और निर्माता – महमूद फ़ारूकी, इस कला को पुनर्जीवित कर रहे हैं। फ़ारूकी, जो इस्लामी और हिंदू मिथकों व किंवदंतियों के बीच परिवर्तन
करना पसंद करते हैं, के लिए इन कहानियों में कट्टरपंथी कथानक हैं, जो बड़े
पैमाने पर, कलात्मक और राजनीतिक अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता की
अनुमति देते हैं। इस तथ्य के बावजूद कि, ये कहानियां पुरानी
और जटिल उर्दू में बताई गई हैं, उनके कार्यक्रम काफ़ी सफल रहे हैं। लेकिन ऐसा शायद इसलिए, क्योंकि
दास्तानगोई समूह लगातार वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों को
संबोधित करता है।
संदर्भ
चित्र संदर्भ
1. दास्तान-ए-कर्ण अज़ महाभारत' के प्रदर्शन के दौरान महमूद फ़ारूक़ी को दर्शाता चित्रण को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. चारों और दर्शकों से घिरी एक महिला दास्तानगो के खड़े होकर अरेबियन नाइट्स का पाठ करते हुए एक दृश्य को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. 21वीं सदी के दास्तानगोई कलाकार सईयद साहिल आगा को दास्तान-ए-अमीर खुसरो का पाठ करते हुए संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. दास्तानगोई कलाकार दारैन शाहिदी और महमूद फारूकी को दसातन-ए-राग दरबारी प्रस्तुत करते हुए संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. दारैन शाहिदी और महमूद फ़ारूक़ी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
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